।। पिता ।।
कितने आँसू बहते हैं,
मासूम गालों पर
दो बूँदों को देख
कितनी पीड़ा होती है,
जेब के आगे
फरमाइशों को टूटता देख
रौब की दीवार के भीतर
कितना मोम है
(यह) पिता बन कर ही जाना ।
-----
‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001
कृपया मेरा ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com भी पढें ।
नववर्ष की आपको बहुत-बहुत बधाई। ये पंक्तियां मेरी नहीं हैं लेकिन मुझे काफी अच्छी लगती हैं।
ReplyDeleteनया वर्ष जीवन, संघर्ष और सृजन के नाम
नया वर्ष नयी यात्रा के लिए उठे पहले कदम के नाम, सृजन की नयी परियोजनाओं के नाम, बीजों और अंकुरों के नाम, कोंपलों और फुनगियों के नाम
उड़ने को आतुर शिशु पंखों के नाम
नया वर्ष तूफानों का आह्वान करते नौजवान दिलों के नाम जो भूले नहीं हैं प्यार करना उनके नाम जो भूले नहीं हैं सपने देखना,
संकल्पों के नाम जीवन, संघर्ष और सृजन के नाम!!!
पिता दिखता तो बहुत सख्त है, लेकिन अन्दर से मोम है, बहुत सुंदर रचना लिखी है आप ने.... सच मे पिता बन कर ही पिता का पता चलता है.
ReplyDeleteनव वर्ष की आप और आपके परिवार को हार्दिक शुभकामनाएं !!!नया साल आप सब के जीवन मै खुब खुशियां ले कर आये,ओर पुरे विश्चव मै शातिं ले कर आये.
धन्यवाद
Bahut sundar bahuv aur bahut sundar kavita...
ReplyDeleteRaj Bhatiya sahab ne bilkul thik kaha hai...
Regards