अब नहीं रही
पहले सी
समय के साथ हो चली बूढ़ी
अब नहीं बहती
वो
समय की रफ्तार से
उसकी चाल से
साफ झलकता है
उसका बुढ़ापा
अब नहीं ले जा सकती
बहाकर
किनारों का कचरा
नहीं रहा वो अल्ह़ड़पन
वो जवानी का आवेश
शनै:-शनैः हो रहा है
उसका अस्तित्व समाप्त ।
तीन-चार वर्षों से
नहीं आया कोई सुध लेने
हां योजनाओं ने जरुर लिया
मूर्त रुप
बू़ढ़ी नदी के नाम पर
लेकिन/विकास
केवल कागजों पर ।
नदी किनारे खड़े पेड़ भी
हो चले हैं जर्जर
माँ सा सुख पा ब़ड़े हुए थे
समय ने कर दिए
नदी के पाट सीमित
नहीं पहुंच पाता
जिलाए रखने वाला जल
उनकी जड़ों
तक नदी भी असहाय है
नहीं कर सकती
उनकी साज-संभाल
बू़ढ़ी हो चली है नदी
----
संजय परसाई की एक कविता
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001
कृपया मेरे ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com पर भी नजर डाले।
bahut bhavpooran ,sunder rachna hai bdhaai
ReplyDeleteबहुत सुंदर, लेकिन जब बच्चे नालयक हो तो मां रुपी नदी भी जवानी मे बूढी लगती है.
ReplyDeleteधन्यवाद