1/22/2009

बूढ़ी हो चली है नदी

नदी
अब नहीं रही
पहले सी
समय के साथ हो चली बूढ़ी
अब नहीं बहती
वो
समय की रफ्तार से
उसकी चाल से
साफ झलकता है
उसका बुढ़ापा
अब नहीं ले जा सकती
बहाकर
किनारों का कचरा
नहीं रहा वो अल्ह़ड़पन
वो जवानी का आवेश
शनै:-शनैः हो रहा है
उसका अस्तित्व समाप्त ।
तीन-चार वर्षों से
नहीं आया कोई सुध लेने
हां योजनाओं ने जरुर लिया
मूर्त रुप
बू़ढ़ी नदी के नाम पर
लेकिन/विकास
केवल कागजों पर ।
नदी किनारे खड़े पेड़ भी
हो चले हैं जर्जर
माँ सा सुख पा ब़ड़े हुए थे
समय ने कर दिए
नदी के पाट सीमित
नहीं पहुंच पाता
जिलाए रखने वाला जल
उनकी जड़ों
तक नदी भी असहाय है
नहीं कर सकती
उनकी साज-संभाल
बू़ढ़ी हो चली है नदी
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संजय परसाई की एक कविता

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2 comments:

  1. बहुत सुंदर, लेकिन जब बच्चे नालयक हो तो मां रुपी नदी भी जवानी मे बूढी लगती है.
    धन्यवाद

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