दुःख-दर्द और जान है अख़बार में नहीं,
सच का कहीं रुझान है अख़बार में नहीं ।
केवल हैं मारकाट और मौतों के सिलसिले,
इंसानियत का मान है अख़बार में नहीं ।
मालिक का रोज़-रोज़ कसता है शिकंजा,
कलमों का अब सम्मान है अख़बार में नहीं ।
सौदागरों की देख तो आशीष लिखावटें,
सच का कहीं बयान है अख़बार में नहीं ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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