5/18/2009

समानता

घड़ी और मनुष्य में
बहुत समानता है

घ़ड़ी भी चलती है
मनुष्य भी

घड़ी की तीन सुइयों के समान
बचपन, जवानी और बुढ़ापा है

सेकण्ड की सुई
साँसों के समान
अनवरत चलती है
टिक-टिक की आवाज
दिल की धड़कन सी लगती है

संयोग है कि
घ़ड़ी को मनुष्य चलाता है
लेकिन
सत्यता इसके विपरीत है
घड़ी ही मनुष्य को चलाती है

एक समय आता है
चलते-चलते घड़ी रुक जाती है
और
मनुष्य भी... ।
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संजय परसाई की एक कविता



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5/17/2009

ऐसे चन्दन

हमने भी ग़म देखे हैं,
ऐसे मौसम देखे हैं ।

जख्मों को गहरा कर देते,
वो भी मरहम देखे हैं ।

बीच राह में साथ छोड़ दे,
ऐसे हमदम देखे हैं ।

सर्पों को घायल कर देते,
ऐसे चन्दन देखे हैं ।

अपने ही अपनों को काटे,
किस्से हरदम देखे हैं ।

लाचारों से दूर भागते,
जाते, राशन देखे हैं ।

पानी की इक बूँद नहीं है,
वो भी सावन देखे हैं ।

जहां पै ‘अंकुर’ एक नहीं,
ऐसे उपवन देखे हैं ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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5/15/2009

हायफन

मैंने जब भी सोचा
रुका तभी जब
पहुंचा ‘हम’ तक।

तुमने जब भी सोचा
लांघ न पाई ‘मैं’ की झाडी।

मैं सोचता हूँ
जब हम एक हैं
तो फिर
यह विरोधाभास क्यों?

क्या अब भी
मेरे और तुम्हारे बीच
कोई हायफन (डेश)शेष है
जो हमें/एक होनेका
आभास तो कराता है
साथ ही भिन्नता का भी?

यदि तुम्हारा सोचना यह कि
हायफन मात्र से एकात्मकता सम्भव है
तो यह सबसे बड़ा वहम् है

हायफन शब्दों और अक्षरों को
तो जोड़ सकता है
दिलों और सम्बन्धों को नहीं ।

सोचता हूँ
क्या तुम भी कभी ‘मैं’ को पीछे छोड़
‘हम’ तक पहुँचोगी?
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संजय परसाई की एक कविता



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5/14/2009

सब सयाने हो गए

आदमी हैरान है,
लाचार परेशान है ।

भीड़ है चारों तरफ,
जाने कहां इंसान है ।

काशी -काबा हो आए,
देखा नहीं भगवान है ।

ज़िन्दगी के सफ़र में,
व़क्त का तूफान है ।

सब सयाने हो गए,
‘आशीष’ अभी नादान है ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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5/12/2009

बेनूर आवाज

अब नहीं सुनाई देती
वो कर्कशी माधुर्य से
अलापती आवाज
और नहीं दिखाई देती
ईश्वरीय अभिशाप को भोगती
वो चार फुटी कद-काठी
अब तो वो चेहरे
दिखते हैं उदास
जो दिन-रात लेते थे
उसकी झि़ड़की ।

अब चाहकर भी
नहीं सुन सकते
उसकी लाचारी से भरी हूँकार
सौ गज दूर से
सुनाई देती
उसकी झिड़की
रहवासियों को देती थी सुकून
उसकी लाचारी में छिपा था
मोहल्लेवासियों का प्यार-अपनत्व
और
इसी स्नेह की बदौलत
वो पा लेता था
एक प्याली चाय
और सुलगती तम्बाकू का गहरा कश
लेकिन
स्टेशन की सड़कों को
रोशन करती वो बेनूर आवाज
सदा के लिए हो गई खामोश
अब चाहकर भी
कोई नहीं कहता
लो वो आ गया ‘अयूब’

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संजय परसाई की एक कविता

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5/11/2009

आशियाँ अब तो बना लो

हकीक़त से आज सटकर,
लीक से देखा है हटकर ।

दृश्य बतलाने लगा है,
बात अपनी ही उलटकर ।

पाप है उनके दिलों में,
बात करते जो मटककर ।

हमसफर जिसको बनाया,
चला है दामन झटककर ।

आया है दरिया भी देखो,
आँख में अपनी सिमटकर ।

आशियाँ अब तो बना लो,
खूब देखा है भटककर ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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5/09/2009

और तूफान शान्त हो गया

तूफान आते ही
हो जाती है
अच्छे-अच्छों की हालत पस्त
लेकिन
इस तूफान के आने से
होती थी हर एक को खुशी
अस्सी दशक को याद करती
मेण्टेन बॉडी वाले तूफान का
सरपट चले आना
सबको कर देता था
आश्चर्यचकित
और
अस्सी के पड़ाव पर भी
पचास से अस्सी धेला
खीसे में रख
जब मंगल करता
अपनी खपच्चियों की गुमटी
तो ब़ड़े-बड़े व्यापारी
दबा लेते थे
दांतों तले अंगुली
क्योंकि दिनभर
बी.पी., दमे व शुगर की
पु़डियों को फाँकते
जब अपनी आलीशान
दुकानों के शटर गिराते
तो सामने रखी
खपच्चियों की गुमटी
और मेण्टेन बॉडी
उनका मुँह चिढ़ाती ।
आज जरुर तूफान
बहुत तेजी से गुजर चुका है
लेकिन अपने पीछे
तबाही का मंजर नहीं
प्रेम और सौहार्द्र का
ऐसा गुलशन छोड़ गया है
जो सबके दिलों को
महकाता रहेगा ।
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5/08/2009

आईना

अपने दिल की बात दिखलाने लगा है आईना,
सामने ज़ज्बात दिखलाने लगा है आईना ।

कितना ही सजधज कर खड़े हो जाएं सामने,
आपकी औक़ात दिखलाने लगा है आईना ।

गले मिलते राम-औ रहमाँ एक पल को रुक गए
यूँ लगा कि जात दिखलाने लगा है आईना ।

खून के दरिया ही उसमें अब दिखाई दे रहे,
लगे है, हालात दिखलाने लगा है आईना ।

सुबह देखो उसमें या कि देखो उसमें शाम को,
हर घड़ी बस रात दिखलाने लगा है आईना ।

मुस्कुराते लोग कितने सामने उसके खड़े,
अश्कों की बारात दिखलाने लगा है आईना।

सामने आए तो ‘आशीष’ टूटकर बिखर गया,
कैसे-कैसे करामात दिखलाने लगा है आईना ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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5/06/2009

अपने उस बच्चे को जीवित रखें

लोग कहते हैं
कि अब मुझे गम्भीर हो जाना चाहिए
मेरी उम्र के हिसाब से
ये बच्चों सी हरकतें
शोभा नहीं देती
ये किलकारी मारकर हँसना
जोर-जोर से ताली बजाकर
किसी से हँसी-ठिठोली करना
समय भी चाहता है
कि उसके अनुसार
और उम्र के हिसाब से
व्यक्ति में परिवर्तन होना चाहिए ।

यदि उम्र पचपन की हो तो ?
तो भी
क्योंकि पचपन में
बचपन लौट आता है
और व्यक्ति/वो सारी हरकतें करता
है जो उम्र की शुरुआत
यानी बचपन में होती है ।

अब मुझे/गम्भीर होने की जरुरत नहीं है
इसलिए सभी पचपन को चाहिए
कि वो अपने बचपन के
बच्चे को जीवित रखे
उम्र के इस पड़ाव में
कम से कम
उसकी हत्या न होने दें ।
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संजय परसाई की एक कविता

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5/05/2009

करेंगे अब राज वे

देखिये वे आ रहे खूँखार अपनी बस्ती में,
सुना है वे करेंगे व्यापार अपनी बस्ती में ।

आज तो अपनों के मेले, हाट हैं बाज़ार हैं,
देखना कल उनका हाहाकार अपनी बस्ती में ।

बिजली देंगे, पानी देंगे और देंगे खाद वे,
करेंगे अब राज वे मक्कार अपनी बस्ती में ।

जाग जाओ, अब संभलने का समय है आ गया,
गीत गाता फिर रहा फनकार अपनी बस्ती में ।

जाने कब हो जाए दस्तक अब यहाँ सरकार की,
है डरा-सहमा-परेशाँ, हर द्वार अपनी बस्ती में ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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5/03/2009

चिड़िया

चिड़िया
चाहती है छूना
आकाश की ऊँचाइयों को
उड़ती भी है
लेकिन शिकारियों/और
जंगली भेड़ियों के डर से
पुनः लौट आती है
घोंसले में।


सोचती है चिड़िया
क्या बच पाएगी
वहशी और दरिन्दे जानवरों से?
क्या छू पाएगी कभी
आकाश की ऊँचाइयों को?
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5/02/2009

आजकल

बेवजह का जोर देखो आजकल,
शोर ही बस शोर देखो आजकल ।

रोशनी लाने की कोई सोचता नहीं,
फैला है घनघोर देखो आजकल ।

वायदों के पुल पै’ सरकारें टिकी है,
झूठ है चहुँ और देखो आजकल ।

अपना घर खुला रखें किसके यकीं से,
गुज़रते बस चोर देखो आजकल ।

है पतंग अपनी मग़र क्या कीजिए,
पड़ौसी के हाथ में डोर देखो आजकल ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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5/01/2009

मई दिवस के वीरों के नाम

जब कि पलाश के अनुराग में नहाए पहाड़
पके करोंदों की ख़ुशबू से भरे गए हैं
जब कि मतवाले कोकिल ने
अमराइयों को मथ दिया है

जबकि अपना सुर्ख दिल ले कर
हरियाली के झुरमुटों से
झाँक रहे हैं गुलमोहर

मई दिवस के शहीदों!
मैं तुम्हें भेजता हूँ सलाम
इस वास्ते के साथ
कि तुम्हारी छाती से फूटे
खून के फव्वारों में नहाया
वह सुर्ख़ परचम
अपनी पूरी शिद्दत के साथ
फड़फड़ा रहा है हमारी धमनियों में
लहू की रफ्तार के साथ
और तार तार होने के बावजूद
हमारीं उम्मीदें गूँज रही हैं
हाँ, बावजूद इसके कि आस्मानों के रंग
और ज़्यादा स्याह हो गए हैं

शिकागो के वीरों! निष्पाप लोगों!!
तुम लड़े कि धमनभट्टियों में सुलगते
कारख़ानों के पहियों में मशीन बन गए
ज़िन्दा आदमी को हासिल हो उसके पूरे हुक़ूक
और लम्हात
कि वह दानिशमन्दों के लिखे
रोशनी के हरूफ़ बाँच सके,
गिटार बजा सके
घर की मुँडेर पर बैठ कर चांदनी
रात में
जंगल में उलझे बड़े से चाँद को देख सके
आँख भर कर और छेड़ सके
नभ के मान सरोवर में तारों के मोती चुगते
बादल-हंसों को

ठहाके लगाए बच्चों के साथ
और अंगीठी की आँच में दमकते
अपनी नाज़नीन के चेहरे का दीदार करे

शिकागो के वीरों
सचमुच बहुत कडुवे दिन हैं ये
हम हिन्दुस्तानियों के

बुझे हुए हैं मन के देवालय
वीरान पड़ी हुई हैं अन्तर्मन से उठी प्रार्थनाएँ
और कुछ इस क़दर टूट गए हैं धागे
कि जुड़ तो गए हैं पर गाँठ पड़ गयी है

और फिरंगी हैं कि फिर आ पहुंचे हैं

लोकगीतों से कहीं खो नही जाए
सदा के लिए हमारी
तुलसी का बिरवा और नीम का पेड़

पर यह भी उतना ही सच है कि
चटख चटख कर टूट रहे हैं
इतिहास के काले अंधेरे
और गूंज रहे हैं आस्मानों में मुक्तिगान

शिकागो की सड़कों पर
तुम्हारे ख़ून में सना परचम
अब एक उफनता सैलाब बन गया है

उफनते सैलाब और हवाओं के इन दिनों में
मैं तुम्हारा इस्तकबाल करता हूँ
मई दिवस के वीरों!
तुम्हें सलाम करता हूँ।
-----
रचना दिनांक 28 अगस्त 1994

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।
प्रकाशित कृतियाँ - (कविता संग्रह हिन्दी) : अंधेरे के कटते पंख, टहनियों से झाँकती किरणें।
(कविता संग्रह, अंग्रेजी) : रिवर्स केम टू माई डोअर, ‘बिफोर द लिव्ज़ टर्न पेल’, लेपर्डस एण्ड अदर पोएम्ज़।
हिन्दी से अंग्रेजी में पुस्तकाकार अनुवाद : नो सूनर, गुड बाई डिअर फ्रेन्ड्स, पोएट्री आव द पीपल, ए रेड रेड रोज़, तथा ‘सांग आव द मेन’। देश-विदेश की पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित।
साक्षात्कार, कलम, कंक, नया पथ, अभिव्यक्ति, इबारत, वसुधा, कथन, उद्भावना, कृति ओर आदि पत्रिकाओं में मूल रचनाओं के प्रकाशन के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका, यूरोप एवं रुस के रचनाकारों का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद।
इण्डियन वर्स, इण्डियन लिटरेचर, आर्ट एण्ड पोएट्री टुडे, मिथ्स एण्ड लेजन्ड्स, सेज़, टालेमी आदि में हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद।
एण्टन चेखव की कहानी ‘द ब्राइड’ और प्रख्यात कवि-समीक्षक-अनुवादक श्री विष्णु खरे की कविता ‘गुंग महल’ का नाट्य रूपान्तर। ‘हिन्दुस्तान’ और ‘पहचान’ अन्य नाट्य कृतियाँ।
अंग्रेज़ी और हिन्दी साहित्य पर समीक्षात्मक आलेख।
जन आन्दोलनों में सक्रिय।
सम्प्रति - शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं विज्ञान महाविद्यालय, रतलाम में अंग्रेजी के प्राध्यापक पद से सेवा निवृत।
सम्पर्क : 6, कस्तूरबा नगर, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001. दूरभाष - 07412 264124


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4/30/2009

कितना गलत है

मैं सुबह से खोज रहा था उसे
हर जगह खोज आया था
जहाँ-जहाँ उसके मिलने की सम्भावना थी
लेकिन वो
नजर न आई
मैं और बेचैन हो उठा
उसे पाने के लिए
मेरा प्यार/और बढ़ता जा रहा था
गुस्सा भी बहुत आ रहा था
लेकिन मजबूर था
उसकी हर चीज
उसकी याद को बढ़ा रही थी
और न मिलने से खीज भी बढ़ रही थी
लेकिन वो है कि
लाख खोजने के बाद भी
नजर नहीं आ रही थी
मैं रह-रहकर
एक ही बात सोच रहा था
कितना गलत है
उसका यूँ अपनी जगह पर न होना ।
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4/29/2009

मुफलिसी

मुफलिसी में एक और मेहमान आया
मँका की दरारों में पीपल उग आया

मुफलिसी में राखी पे बच्चों ने फरमाइश दे दी
बहन ने चिट्ठी में लिखा, ‘‘दादा! हरियाला सावन आया’’

मुफलिसी में जैसे-तैसे चल रहा था घर खर्च
ऐसे में पत्नी का भारी पाँव नजर आया

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विजय शर्मा : स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर में काम करते हैं।

पता : ई/जी-12, स्कीम नम्बर-54, विजय नगर, इन्दौर-452010

फोन: (0731) २५५६९६७ मोबाइल: 94259 13132



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4/28/2009

बातें उसे भाती नहीं

आँखों देखी ज़ुबाँ पर आती नहीं है,
ये फिज़ा तो हमको सुहाती नहीं है ।

दिल बहलाने को हैं तरीके बहुत,
टीस मग़र दिल से ही जाती नहीं है ।

जब कभी भी सच बताया है उसे,
हमारे बातें उसे भाती नहीं है ।

ज़िन्दगी के गीत गाए हैं यहाँ,
धड़कने फिर भी यहाँ गाती नहीं है ।

बदलती दुनिया का बदला रुप है,
दीप है तत्पर मग़र बाती नहीं है ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4/27/2009

जोकर

मैं चाहता हूँ
जोकर बन जाना
ताकि लोगो को हँसा सकूँ
उनके गम बाँट सकूँ
और दुःखों का साथी बन जाऊँ
कुछ समय के लिए

ऐसे दुःखों का साथी
जो दुःख नहीं, खुशी दे सकें
कुछ क्षणों के लिए
भीषण तपन में मावठे सी।

लेकिन
आसान नहीं है जोकर बनना
हजारों में एक ही बन पाता है जोकर
क्योंकि
अपना कुछ नहीं होता जोकर के पास

उसकी हँसी ठिठोली

रोना-कूदना-उछलना
सब दूसरों के लिए है

सोचता हूँ
क्या, दे पाऊँगा दूसरों को?
बाँट पाऊँगा उनके गम?

बढ़ा पाऊँगा
उनकी खुशी?

अन्तर्मन ने बार-बार कचोटा

शायद नहीं ....
शायद नहीं ....
शायद कभी नहीं ....।
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संजय परसाई की एक कविता



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4/26/2009

गोठण

अगाध प्रेम का स्रोत फूट रहा था
उसके भीतर

अपने आदीप्त नेत्रों से अनन्त के कितने पलों तक
उसने पुकारा बीह़ड़ों में गुम हो गये अपने आदिम प्रेम को

अपने शैशव को जगाते हुए अपनी वात्सल्य-आतुर उंगलियों से
उसने मुझे भरपूर छू कर देखा
कि कहीं मैं पत्थर तो नहीं हो गया हूँ
कि कहीं मेरे भीतर सूख तो नहीं गई है मिठास
और दूध की धारा

हवा उठी अंगारों पर से राख हटाती हुई,
नदी ने पूछा किसी समुद्र का पता,
वह यहाँ तक आई थी पर्वतों को लाँघती, उफनती हुई

आम के पेड़ों और हरे भरे खेतों की मेड़ों को
अपनी साँसों में न्योतते हुए उसने मुझसे ओज और
पानी की बातें की,
सपनों का एक गाँव भी उसने बसाया है, उसने कहा

बाऱिश की तेज़ झड़ी में काँपती हुई वह एक बेल थी
फलों से लदी हुई,
असंख्य नई पत्तियाँ उसके भीतर आँखे खोल रही थीं/ जेठ की धूप में भी नहीं मरी थीं
कोंपलें

न मालूम कितने जन्मों की गोठण की तरह वह मुझसे
मिल रही थी न मालूम कितने जन्मों के वास्ते

अगाध प्रेम का स्रोत फूट रहा था उसके भीतर,
वहाँ सब नया-नया था और पुराना कुछ भी नहीं था।
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रचना दिनांक 19 फरवरी 2005


रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।

अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।

प्रकाशित कृतियाँ - (कविता संग्रह, हिन्दी) : अंधेरे के कटते पंख, टहनियों से झाँकती किरणें।
(कविता संग्रह, अंग्रेजी) : रिवर्स केम टू माई डोअर, ‘बिफोर द लिव्ज़ टर्न पेल’, लेपर्डस एण्ड अदर पोएम्ज़।


हिन्दी से अंग्रेजी में पुस्तकाकार अनुवाद : नो सूनर, गुड बाई डिअर फ्रेन्ड्स, पोेएट्री आव द पीपल, ए रेड रेड रोज़, तथा ‘सांग आव द मेन’। देश-विदेश की पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित ।

साक्षात्कार, कलम, कंक, नया पथ, अभिव्यक्ति, इबारत, वसुधा, कथन, उद्भावना, कृति ओर आदि पत्रिकाओं में मूल रचनाओं के प्रकाशन के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका, यूरोप एवं रुस के रचनाकारों का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद।

इण्डियन वर्स, इण्डियन लिटरेचर, आर्ट एण्ड पोएट्री टुडे, मिथ्स एण्ड लेजन्ड्स, सेज़, टालेमी आदि में हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद।
एण्टन चेखव की कहानी 'द ब्राइड' और प्रख्यात कवि-समीक्षक-अनुवादक श्री विष्णु खरे की कविता ‘गुंग महल’ का नाट्य रूपान्तर। ‘हिन्दुस्तान’ और ‘पहचान’ अन्य नाट्य कृतियाँ।
अंग्रेज़ी और हिन्दी साहित्य पर समीक्षात्मक आलेख।
जन आन्दोलनों में सक्रिय।
सम्‍‍‍प्रति - शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं विज्ञान महाविद्यालय, रतलाम में अंग्रेजी के प्राध्यापक पद से सेवा निवृत।
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4/25/2009

हालात बदलिये

पहले दिल की बात बदलिये,
फिर सारे हालात बदलिये ।

दिन जब दिन सा हो जाए तो,
सारी-सारी रात बदलिये ।

उनके पैर सने दिखते हैं,
खुद की तो औक़ात बदलिये ?

ग़म में भी खुशियाँ ही बिखरे,
अ़श्क़ों की बारात बदलिये ।

दम है खुद में तो, डर कैसा?
ये भीख, ख़ैरात बदलिये ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4/24/2009

कड़वा सच

राधाकिशन
उदास
चेहरे पर मायूसी लिए
निकल पड़ा घर से

यह राधाकिशन
कोई किशन सेठ नहीं
कि तफरी के लिए निकला हो

यह तो बेचारा किशना है
एक बेबस/लाचार/कुली ।

निकला है
दो जून रोटी की जुगाड़ में

लेकिन
किशना का साथ
हर बार की तरह
किस्मत ने नहीं दिया

स्टेशन पहुँचा तो
ट्रेन चार घण्टे लेट

किशना ने बीड़ी निकाली
और अपने बुरे समय को
धुएँ में घोलने की
नाकाम कोशिश करता रहा

समय बीता
ट्रेन आई
लेकिन यहाँ भी
बुढ़ापे ने साथ नहीं दिया

कुछ जवाँ कुलियों ने
बड़ी सफाई से
यात्रियों को खुश कर लिया
और/राधाकिशन
अपनी किस्मत पे रोता
भाग्य को कोसता
घर की ओर चल दिया ।

रास्ते भर
तीन जवान बेटियाँ
दो बेरोजगार बेटे
और/रुग्ण पत्नी के
विषय में सोचता


जिन्दगी के एक कठिन सवाल को
हल करने की चेष्टा करता कि
दिन तो गुजर गया
रात कैसे गुजरेगी?
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संजय परसाई की एक कविता


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4/23/2009

कत्थक नाचने वाली लड़की

जब बादाम के पेड़ पर
हरे ताम्बई रंग के नये पत्ते फूटते हैं
मुझे याद आती है
कत्थक नाचने वाली लड़की

बड़ी - बड़ी आँखों और गोल चेहरे वाली
लड़की
जब हथेलियों में महावर का वसन्त
सजाती है
जब आँजती है काजल
बाँधती है अलकों में चाँद
और पैरों में घुँघरू
तब पृथ्वी एक थिरकती हुईं
नर्तकी बन जाती है

कौंधती बिजलियों में लिपटी
बारिश,
और पहाड़ों में उछालें खाती
नदी का निखार
आतुर हो उठता है अंग - अंग में फूटती कविता का
सिंगार करने

तब सरल सी, हवा-सी लड़की
अनुगूंजित दिशाओं में झंकृत नादमयी वीणा होती है

जब बादाम के पेड़ पर
फूटते हैं नये पत्ते
जब चढ़ता है वसन्त के चेहरे पर पानी
मुझे कत्थक नाचने वाली लड़की याद आती है
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रचना दिनांक 7 फरवरी 1996
रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।
प्रकाशित कृतियाँ - (कविता संग्रह हिन्दी) : अंधेरे के कटते पंख, टहनियों से झाँकती किरणें।
(कविता संग्रह, अंग्रेजी) : रिवर्स केम टू माई डोअर, ‘बिफोर द लिव्ज़ टर्न पेल’, लेपर्डस एण्ड अदर पोएम्ज़।
हिन्दी से अंग्रेजी में पुस्तकाकार अनुवाद : नो सूनर, गुड बाई डिअर फ्रेन्ड्स, पोएट्री आव द पीपल, ए रेड रेड रोज़, तथा ‘सांग आव द मेन’। देश-विदेश की पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित ।
साक्षात्कार, कलम, कंक, नया पथ, अभिव्यक्ति, इबारत, वसुधा, कथन, उद्भावना, कृति ओर आदि पत्रिकाओं में मूल रचनाओं के प्रकाशन के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका, यूरोप एवं रुस के रचनाकारों का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद।
इण्डियन वर्स, इण्डियन लिटरेचर, आर्ट एण्ड पोएट्री टुडे, मिथ्स एण्ड लेजन्ड्स, सेज़, टालेमी आदि में हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद।
एण्टन चेखव की कहानी ‘द ब्राइड’ और प्रख्यात कवि-समीक्षक-अनुवादक श्री विष्णु खरे की कविता ‘गुंग महल’ का नाट्य रूपान्तर। ‘हिन्दुस्तान’ और ‘पहचान’ अन्य नाट्य कृतियाँ।
अंग्रेज़ी और हिन्दी साहित्य पर समीक्षात्मक आलेख।
जन आन्दोलनों में सक्रिय।
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4/22/2009

चाँद पर कर चहलकदमी

मत कर अब ईमान की बातें,
यहाँ पर इंसान की बातें ।

कुर्सियों का दौर है यह,
याद रख मतदान की बातें ।

आँसुओं के इस शहर में,
व्यर्थ है मुस्कान की बातें ।

दिल में ही जब जगह नहीं,
कैसे हो मेहमान की बातें ।

चाँद पर कर चहलकदमी,
भूल जा मैदान की बातें ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4/21/2009

बचपन

लोग कहते हैं
अब मैं ब़ड़ा हो गया हूँ

बच्चों सा
हँस और खिलखिला नहीं सकता
उनकी तरह
छलांगें भी नहीं लगा सकता
यहाँ तक कि
तुतली भाषा में बात भी नहीं कर सकता


और न ही
गेंद समझकर चाँद के लिए
जिद कर सकता हूँ
क्योंकि मैं ब़ड़ा हो गया हूँ

लेकिन मन कहता है नहीं
मैं सोचता हूँ क्यों नहीं

मन कहता है
मैं उस अवस्था में पहुँच गया हूँ
जहाँ वापस बचपन लौट आता है

यानी मेरे ब़ड़प्पन में बचपन
लौट आया है/जहाँ
मैं हँस सकता हूँ
खिलखिला सकता हूँ
तुतला सकता हूँ

लेकिन छलाँगे नहीं लगा सकता
और न ही चाँद को पाने की
जिद कर सकता हूँ

तो क्या यहीं फर्क है
बचपन में और
बड़प्पन के बचपन मे?
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संजय परसाई की एक कविता


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4/20/2009

पथरीले शब्द

अब
जबकि कई दफ़े लगी सिलाई भी
उघड़ चुकी है
और आदमी फटा जूता हो गया है

दर-बदर हो रहे हैं लड़के
और जली औरतों की चीखों से
अस्पताल रोज़ भरते जा रहे हैं

औंधे हो गए हैं अच्छे शब्द
और सब सुन्दर कविताओं की हवा निकल गई है

बस्तियाँ की बस्तियाँ साम्प्रदायिक होती जा रही है,
जिनके दूध के दाँत भी नहीं टूटे
उन बच्चों की नसों में गर्म लोहा
उड़ेला जा रहा है

कोमलता सूख रही है पंखुड़ी-दर-पंखुड़ी
ऐसे में पवित्र शब्दों की वकालत
षडयन्त्रकारियों की मुखबिरी है

बात बात के लाले पड़ रहे हैं
बरसों पुरानी हो गई है नई कमीज की बातें

और हालात ये हैं कि
तुम्हारे अपने ही बैटों ने तुम पर
थूक दिया है

रोग़न लगी कविता कैसे हो सकती है
समय का दस्तावेज़

लगती गर्मियों का यह चाँद
कटते धान के ये खेत
यह तो सब खूबसूरत मंज़र है
जादू में गूँथा हुआ

और इससे किसी को कोई गुरेज नहीं

पर वह जो खौफ़नाक तिलस्म है
जो बहुत सलीक़गी से
तुम्हारी और तुम्हारी नस्लों की हवि ले रहा है,
उसके लिए
यह रेशम, यह कमख़ाब किसी काम का नहीं

पथरीले शब्द ही एक उम्मीद हैं खिड़की की


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रचना दिनांक 5 सितम्बर’94

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।

अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।

प्रकाशित कृतियाँ - (कविता संग्रह हिन्दी) : अंधेरे के कटते पंख, टहनियों से झाँकती किरणें।
(कविता संग्रह, अंग्रेजी) : रिवर्स केम टू माई डोअर, ‘बिफोर द लिव्ज़ टर्न पेल’, लेपर्डस एण्ड अदर पोएम्ज़।
हिन्दी से अंग्रेजी में पुस्तकाकार अनुवाद : नो सूनर, गुड बाई डिअर फ्रेन्ड्स, पोएट्री आव द पीपल, ए रेड रेड रोज़, तथा ‘सांग आव द मेन’। देश-विदेश की पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित ।
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4/19/2009

इक बगावत चाहिए

ज़िन्दगी में ग़र शरारत चाहिए,
तो यक़ीनन मुस्कुराहट चाहिए ।

हाल कुछ बिगड़े हैं यारों इस तरह,
अम्न की हर रोज़ दावत चाहिए ।

कुछ शरीफों के तरह की बात हो,
खुद में भी तो कुछ शराफत चाहिए।

जंग लगता जा रहा इस तन्त्र में,
हल यही है इक बगावत चाहिए ।

गुलिस्ताँ महकाने के लिए ‘आशीष’
नौ- शगुफ्ता फूल सी निक्हत चाहिए।
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4/18/2009

अमृत

देर तक
आसुओं की नदियाँ
बहाई मैंने
और/देर तक
सिसकता रहा मैं


फिर
दो नर्म/नाजुक हाथ
मेरी ओर ब़ढ़े
आँसू पोंछे
और/एकदम
सीने से लगा लिया
देर तक
सीने से लिपटाकर रखा

शायद वह
मेरे रोने/बिलखने के मर्म को
समझ चुके थे

और कुछ समय पश्चात
मैं पुनः पहले सा
खिलखिला रहा था

क्योंकि
मुझे मेरी माँ से
वो अमृत मिल चुका था
जो मेरी भूख/और
रोने का कारण था ।
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संजय परसाई की एक कविता


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4/17/2009

बूढ़ा कवि

बूढ़ा कवि
जो लड़ता रहा ज़िन्दगी भर
भूख और कर्ज़ से
छाती में पूरी सदी का हाहाकार ले कर
बेचैन घूम रहा है बरामदे में
आहत जटायु की तरह

अपने खून और मज्जा में आन्दोलित
भीतर धधकती आग ले कर
उम्र भर वह शब्दों को फौलाद में ढालता रहा
वहाँ
जहाँ आदमी और उसकी नस्लों के वास्ते
रोटी और फूलों की मुहिम शुरू होती है
जहाँ जंग लड़ी जाती है
ग़ैरबराबरी के खात्मे की

उद्वेलित वह झकझोर देगा
आकाश को,
अपनी अस्फुट बुदबुदाहट से
वह देवों की
नींद हराम कर देगा

वह तुम्हारी रचनाधर्मिता को
पशुता के जबड़ों से निकालने के लिए
कोई तदबीर सोच रहा है

कवि लहूलुहान घूम रहा है
बरामदे में
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रचना दिनांक 16 जून 1992

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
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4/16/2009

हाथों की लकीरें

चूल्हा-चौका, झाडू-बर्तन और हाथों की लकीरें,
बन्द कोठरी बदबू-सीलन और हाथों की लकीरें।

सास -ननदें, पति-देवर और जो भी शेष है,
सहन करती सबकी झिड़कन और हाथों की लकीरें।

कहा था माँ-बाप ने उसको अपना घर समझना,
यहाँ मन से दूर है मन और हाथों की लकीरें ।

है अनुपम भाग इसका, पण्डितों की ही ज़ुबाँ थी,
सहन करती करुण-क्रन्दन और हाथों की लकीरें ।

याद आते बहुत वे पल जो सहेली संग गुज़ारे,
अब तो हर पल वही अनबन और हाथों की लकीरें ।

फटी धोती से ढका तन और माथे पर शिकन,
देख उसको नम है दरपन और हाथों की लकीरें ।
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4/15/2009

वह एक मानव है

चिलचिलाती धूप में
पसीना बहाता
तन पर फटे कपड़े
और दिल में
रोटी की आस लिए
भविष्य से लड़ता
उम्मीद से झगड़ता
भाग्य को कोसता
तिल-तिल जलता
वह मजदूर

काश !
कोई समझता
वह केवल
एक मजदूर नहीं

उसका भी दिल है
कल्पना है आरजू है

और इन सभी से दूर
और इन सबसे पहले
वह एक मानव है ।
===



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4/14/2009

समय के चमकीले माथे पर

मुँह अँधेरे ही इस ठण्डी में कुछ ओढ़-आढ़कर
निकल गई हैं बच्चियाँ खाली बोतलें ढूँढ़ने
जिन्हें रात को पीने वाले सड़कों के आसपास छोड़ गए है

काव्यात्मक नहीं है यह विषय
किन्तु इसने समय के चमकीले माथे पर कील ठोक दी है

यतीमखानों में बदल गई हैं सड़कें
जिनमें रोटी और पानी का पचास-पचास कोस तक
अता-पता नहीं है
हिन्दुस्तान में खेतों में खूब अनाज पैदा होता है
कोठारों में सड़ते रहते हैं गेहूँ के बोरे के बोरे
पर भूखी आँतों तक नहीं पहुँचता अन्न का स्वाद

कौन रोक लेता है उसे बीच में ह

तुम्हारे लिए ये प्रश्न ग़ैर ज़रूरी हैं
क्योंकि तुमने तो मारिजुआना जैसा कोई नशा कर रखा है
या फिर तुम्हें फुर्सत ही नहीं है
सुखों के आस्मान में उड़ने से

भूख का इज़ाफा होता जा रहा है
और एक दिन तुम्हारे चौके तक भी आ जाएगी
और चमचमाती प्लेटे होंगी, चम्मच होंगे
पर गरम-गरम फुलके और पत्ता गोभी का साग तक नहीं होगा
थाली में

तुम आबादी बढ़ने और जात-पात का तो
ढोल पीट रहे हो
और इस पर ख़ामोश हो कि
हत्यारों की संख्या बढ़ती जा रही है
और कई-कई रूपों में वे तुम्हारे घरों में घुस गए हैं
और तुम्हारे सामने ही उन्होंने तुम्हारे बेटों की मुश्कें बाँध दी हैं

मैं तुम्हें डरा या आतंकित नहीं कर रहा
वह काम अमरीका का है जिसके तुम इतने दीवाने हो
और वह खूबसूरती से तुम्हारी अस्मिता रौंद रहा है
और अब तो खुले आम तुम्हारी अमूल्य विरासत की धज्जियाँ उड़ा रहा है

चलो कोई रोमाण्टिक बात करें,

मैं तो सुबह वैसे ही घूमने जा रहा था कि खाली बोतलें वगैरह
बीनने वाली बच्चियाँ अँधेरे में जाते दिख गईं
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रचना दिनांक 24 अगस्त 2003

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।
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