
रुका तभी जब
पहुंचा ‘हम’ तक।
तुमने जब भी सोचा
लांघ न पाई ‘मैं’ की झाडी।
मैं सोचता हूँ
जब हम एक हैं
तो फिर
यह विरोधाभास क्यों?
क्या अब भी
मेरे और तुम्हारे बीच
कोई हायफन (डेश)शेष है
जो हमें/एक होनेका
आभास तो कराता है
साथ ही भिन्नता का भी?
यदि तुम्हारा सोचना यह कि
हायफन मात्र से एकात्मकता सम्भव है
तो यह सबसे बड़ा वहम् है
हायफन शब्दों और अक्षरों को
तो जोड़ सकता है
दिलों और सम्बन्धों को नहीं ।
सोचता हूँ
क्या तुम भी कभी ‘मैं’ को पीछे छोड़
‘हम’ तक पहुँचोगी?
-----
संजय परसाई की एक कविता
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001
कृपया मेरे ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com पर भी नजर डालें।
क्या अब भी
ReplyDeleteमेरे और तुम्हारे बीच
कोई हायफन (डेश)शेष है
--बहुत सही ऑबजर्वेशन!!