1/31/2009

ऐसे में

हँसी उड़ाताहै
जब कई दिनों का
मीड़ा हुआ चूल्हा

अँगूठा दिखाता है
भाँय-भाँय करता
खाली पड़ा खेत

दगा दे जाती है
आँधियों में
छापरी की फूस

लील जाता है
इलाज का अभाव
वंश का बीज

आखिरी बूँद तक होम कर
अपने सत की

ऐसे में
इच्छा मृत्यु के सुख के जैसा
कुछ भी नहीं पास

न विदेशी मँहगी पिस्तोल
न हाइटेक शयनगृह के बीचोंबीच
मँहगी नींद की गोलियों का सेवन
न मन की मौज में दम बाहर

आखिर में
ऐसे ही गाढ़े वक्त में
हाथ बढ़ाती है
बरगद की डाल
फेंटे के पेंच
बनते हैं सीढ़ी

जिस पर चढ़कर भी
मिलता नहीं मुक्ति का द्वार

वे फिर भी
शेष रह ही जाते हैं
जो इस सबके
नाभिक है ।
-----



प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्‍‍वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र पकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता।

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1/30/2009

मंजूर नहीं है

राम-राम क्या खूब कही है,
हाथ में चाबुक औरर बही है ।

मुँह मेरा आवाज़ तुम्हारी,
हम झूठे पर आप सही हैं।

पैरों में गिरना, मर जाना
क्या इनकी तकदीर यही है ?

माई-बाप हैं आप हमारे,
आपसे आगे कोई नहीं हैं ।

सिर झुक जाए सबके आगे
ये हमको मंजूर नहीं है ।
-----



आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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1/29/2009

नव वर्ष

आया नव वर्ष
लेकिन ढेरों दुःख लेकर
पहले ही दिन
पहले ही प्रहर
घट गई दुर्घटना पिताजी के साथ
जान बची लाखों पाए
चढ़ गया प्लास्टर डेढ़ माह का।
नववर्ष ने दी
पहली दस्तक

वो भी इतनी करारी
कि उठने न दिया पिताजी को
डेढ़ माह से पहले।
बीते वर्ष की बिदाई
लग रही थी
बेटी की बिदाई सी
क्योंकि/उसने रखा था ख्याल
पूरे परिवार का
बारह महीनों ।
नहीं दिया उसने दु:ख
जनवरी में ही दी सौगात
तीन अन्तरराष्ट्रीय
हस्तियों से मिलने की ।
खेल मेले में
मुलाकात हुई
मल्लेश्वरी से
तो कला परिषद् ने मिलाया
हबीब तनवीर से
सबसे ज्यादा खुशी हुई
गायक अनवर के
अठारह घण्टे साथ रहने पर।
वर्ष के मध्य में भी दिए
कई अवसर
प्रगति के ।
और दिसम्बर दे गया
सृजन की एक नई राह
जिस पर/
कई रचनाओं ने लिया जन्म
उनमें कई तो ऐसी
जिन्हें बरसों से चाह रहा था
कागज पर उतारना ।
इसलिए मन नहीं किया
उससे बिछ़ड़ने का
लेकिन
सांसों की सुइयों
और घ़ड़ी की टिक-टिक ने
बारह बजते ही कर दिया
निष्प्राण
और छोड़ गया बीता वर्ष
अपनी यादें
अतीत के रुप में ।
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संजय परसाई की एक कविता



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1/28/2009

परम्‍परा

जो नेकी कर
तो उसे गुपचुप
दरिया में न बहा

कह सरे राह
अभी बहुत जरूरत है उसकी
दुनिया को

नेकी जिन्दा रहेगी
जितने ज्यादा कान सुनेंगे
उसकी बाबत्

तू कहेगा
क्योंकि तेरी आवाज़ में
भरोसा होगा

नेकी
भरोसे के उपवन में ही
बगराती है वसन्‍‍त के जैसी

बदियों को बाद देने की
यही है परम्परा ।

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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्‍‍वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्‍‍य काव्य संग्रह की एक कविता



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1/27/2009

मतभेद तो चलते रहेंगे

इस नदी की काई को आओ हटाएँ,
मौन लहरों को चलो मिलकर बहाएँ ।

ठहरने को क्यों बनाएँ बेबसी,
रुक चुके कदमों को तेजी से बढ़ाएँ ।

नकारा इस जगत ने तो क्या हुआ,
क्यों न अपनी अलग ही दुनिया बसाएँ ?

आपसी मतभेद तो चलते रहेंगे
घर के मसलों को चलो मिलकर मिटाएँ ।

नफ़रतों के शोर पर ना ध्यान दें,
अमन के नग़मात घर-घर में सुनाएं ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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1/26/2009

अब नहीं लिखता कोई प्यार भरी चिट्ठी

चिट्ठियों के बढ़ते भाव के साथ ही
कम होते जा रहे हैं
प्रेम, आत्मीयता
और अपनेपन के भाव।
आजकल हाय, हलो, कैसे हो?
के साथ ही हो जाती है बातें समाप्त।
न वो अपनापन, न स्नेह
और न वो ममत्व का भाव
क्योंकि ‘भाव’ ने ही घटा दिए,
भावनाओं के ‘भाव’।
अब पैसों तक सीमित रह गया है
प्यार और अपनापन ।
चिट्ठियों की मँहगाई ने बढ़ा दी है
दूरियाँ स्नेह की ।
अब नहीं लिखता
कोई प्यार भरी चिट्ठी
भाई, बहन, माँ या प्रेयसी के नाम ।
कम्बख्त टेलीफोन ने कर दिया है
करेले पर नीम का काम।
अब नहीं रहता पहले सा
डाकिए का इन्तजार।
सुबह-शाम समय से पहले ही
दौड़ जाती थी
दूर सड़क पर निगाहें
आता होगा डाकिया
लेकर सुख-दुख का गट्ठर
बगल में दबाए।
लेकिन अब रहती है
मात्र टेलीफोन पर निगाहें
समय की भागती रफ्तार से
काम पूर्ति बात और......और
फिर दूसरे फोन का इन्तजार ।
अब बहुत कम आता है
डाकिया मोहल्ले में।
क्योंकि अब वो ही
भावनाएँ दबी हैं उसके गट्ठर में
जो रह गई हैं टेलीफोन से वंचित
अब सुनाई नहीं देती
डाकिए की आवाज
सुनाई देती है केवल
जोर-जोर से माईक में
चीखने की आवाज
लो और....कम हो गए
टेलीफोन के भाव।
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संजय परसाई की एक कविता

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1/25/2009

कोई तो काला चाहिए

या इबादतगाह या कोई शिवाला चाहिए,
किसी को न मुल्क में थोड़ा उजाला चाहिए ।

जिसके हाथों में सारे जगत की जान है,
फिर भला क्यूँ उसके दरवाजे पे ताला चाहिए ?

बम, धमाके, गोलियाँ, सब आप ही रखिये जनाब,
हमें तो अपने लिए बस इक निवाला चाहिए ।

श्वेत है तेरी पसन्द तो इतना भी तू याद रख,
इसकी अस्मत के लिए कोई तो काला चाहिए ।

मक्खियाँ बाज़ार में उड़ने लगी हैं हर तरफ,
अब तो इनको पकड़ने को कोई जाला चाहिए ।


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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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1/24/2009

परचम


अल सुबह

खुल जाती है नींद

और घेरने लगती हैं

चिन्ताएं

सोने के समय भी

साथ नहीं छोड़तीं

जागने से पहले ही

देने लगती हैं दस्तक

शायद

अहसास कराती हैं

अपनी उपस्थिति का ।

चढ़ती धूप के साथ ही

दिखाती जाती है

अपना असर/और

शाम होते-होते

कर देती है निढाल

रात की कालिमा सी गहराती

क्षीण करती जाती हैं

विचारों का प्रवाह

यदि सोचना भी चाहूं

कुछ हटकर/तो

जताने लगती हैं

अपना अधिकार

लगाने लगती हैं अंकुश

और कर देती हैं

विचारों के प्रवाह को छिन्न-भिन्न

फिर भी नजरें चुराकर

कर लेता हूं

थोड़ा मंथन

चिन्ता से मुक्ति का

और पा लेता हूं राहत

कुछ क्षणों के लिए।

करता रहता हूं प्रयास

चिन्तन के कोड़े से

चिन्ता को राह पर लाने का।

और/यही प्रयास जारी रहा तो

वह दिन दूर नहीं

जब फहराऊँगा परचम

चिन्ता के भाल पर

चिन्तन की विजय का।

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संजय परसाई की एक कविता


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1/23/2009

हर कोई अब चीज है

दर्शनों के लाभ में उलझा यहाँ हर गाँव है,

हाथ हैं जोड़े हुए और बँध गया हर पाँव है।

इन बाज़ारी वायदों में तुम्हें उलझा दिया

हो गए बेखौफ़ अब वे फल गया हर दाव है ।

डूबते हैं हम कभी तो एक तिनका भी नहीं,

और उनके घूमने के वास्ते भी नाव है ।

देखिये आकाश में बारात तारों की सजी,

ज़मीं पर मेरी लगे अनगिनत से घाव हैं ।


नाम ना पहचान के काबिल रहा ‘आशीष’ यहाँ,

हर कोई अब चीज़ है हर किसी के भाव हैं ।


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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1/22/2009

बूढ़ी हो चली है नदी

नदी
अब नहीं रही
पहले सी
समय के साथ हो चली बूढ़ी
अब नहीं बहती
वो
समय की रफ्तार से
उसकी चाल से
साफ झलकता है
उसका बुढ़ापा
अब नहीं ले जा सकती
बहाकर
किनारों का कचरा
नहीं रहा वो अल्ह़ड़पन
वो जवानी का आवेश
शनै:-शनैः हो रहा है
उसका अस्तित्व समाप्त ।
तीन-चार वर्षों से
नहीं आया कोई सुध लेने
हां योजनाओं ने जरुर लिया
मूर्त रुप
बू़ढ़ी नदी के नाम पर
लेकिन/विकास
केवल कागजों पर ।
नदी किनारे खड़े पेड़ भी
हो चले हैं जर्जर
माँ सा सुख पा ब़ड़े हुए थे
समय ने कर दिए
नदी के पाट सीमित
नहीं पहुंच पाता
जिलाए रखने वाला जल
उनकी जड़ों
तक नदी भी असहाय है
नहीं कर सकती
उनकी साज-संभाल
बू़ढ़ी हो चली है नदी
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संजय परसाई की एक कविता

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1/21/2009

बेटियाँ डरने लगीं हैं


ऑँधियाँ ही ऑँधियॉं

चलने लगी हैं इस शहर में,

उल्फतों की वादियाँ

ढलने लगी हैं इस शहर में।


बात जब से सुन रहे हैं

गोली-बम-मिसाइलों की,

हर तवे की रोटियाँ

जलने लगी हैं इस शहर में।


आज फिर इंसान के

तन से लंगोटी छिन गई,

सियासत की गोटियाँ

जमने लगी हैं इस शहर में ।


ये नई तहजीब है

या फिर भयानक स्वप्न है,

बाप तक से बेटियाँ

डरने लगी हैं इस शहर में।


हादसे ही हादसे हैं

अब तो, दिन या रात क्या,

धड़कनें भी आँख को

मलने लगी हैं इस शहर में।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1/20/2009

सयानी हो गई है बिटिया


प्रतीक्षा

अभी से करने लगी है

सयानी बातें

तीसरा जन्म दिन

अभी कुछ दिनों

पहले ही गया है

लेकिन

अभी से होने लगा है

उसके बड़े होने का

अहसास ।


कभी भैया को समझाती

तो कभी मम्मी और दादी को

हां, कभी-कभी तो

दादाजी को भी

सलाह देने से नहीं चूकती ।


इस साल जुलाई

में दिलाना है स्कूल में दाखिला

डांस क्लास की जिद भी करती है

लेकिन

ऑफिस जाते वक्त

कभी नहीं करती जिद

बाय, टाटा, शाम को जल्दी आना

बस !

सोचता हूं

कहां से आ गई इतनी समझ ।

ऑफिस के अलावा

नहीं जाने देती कहीं अकेला

वहां सयानापन

हो जाता है काफूर

सचमुच वर्तमान में

लौट आती है

प्रतीक्षा

और करने लगती है जिद

वो भी ऐसी/कि

छोड़ देती है पीछे

दूसरे बच्‍चों को ।

कुछ देर बाद

फिर वही सयानी बातें।

उस दिन

राम मन्दिर से

लौटते हुए

मैंने पूछ लिया

प्रतीक्षा क्या खाओगी ?

तो/तपाक से बोली

रोज-रोज बाजार की

चीजें नहीं खाते

पेट में की़ड़े पड़ जाते हैं।

इतना सयानापन

आखिर कहां से आया?

सोचता हूं

क्या वाकई

बड़ी हो गई है

मेरी बिटिया?


उभर आती है

लकीरें चिन्ताओं की

मस्तक पर

क्योंकि

ल़ड़की के बड़े होने के

अहसास से

बड़ी नहीं कोई चिन्ता ।

आईने में

चेहरे की लकीरें

बता रही हैं

सचमुच

सयानी हो गई है

मेरी बिटिया ।
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संजय परसाई की एक कविता


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1/19/2009

जलेगा फिर वहीं चूल्हा

तुम्हारी रात का आलम करे कितनी ही मनमानी,
सहर की बात दूजी है, न इसका कोई भी सानी ।

बदलते वक्त में बदली फिजाएँ और ये मौसम

न फूलों में रहीं खुशबू न सावन में कहीं पानी ।

हमारे घर भी कल रोटी बनेगी देखना बेटा,

जलेगा फिर वहीं चूल्हा जहाँ है आज वीरानी ।

है दिल में इक शमाँ रोशन, हवाएँ क्या बिगाड़ेगी,
रहेगी बस वही दुनिया, कहे जो प्यार की बानी ।



मुझे तुमसे शिकायत है जो यूँ खामोश बैठे हो,

उठाओ हाथ में पतवार रख दो चीरकर पानी।

चलाओ गोलियॉं तुम भी चलाएँ गोलियाँ हम भी,

सियासत के लिए कब तक करेंगे यूँ ही नादानी ।

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1/18/2009

एक ही रास्ता

बुराई
खुद करती है
कोशिश
अपने लक्ष्य को पाने की
यदि संभला न जाए
तो कर ले फतह किला
वो भी एक ही झटके में
कई रास्ते हैं
उसके पास
मंजिल पाने के
लेकिन
एक ही रास्ते पर चलकर
कर देता हूं निढाल
और सोचने पर मजबूर
और वो रास्ता है
सच्चाई
ईमानदारी
और
नेक नीयत का
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संजय परसाई की एक कविता

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1/17/2009

पतवार अपने पास है



मैं अगर बोलूँगा सच मानेंगे उसको आप ना,

और उसके झूठ का करते हैं हँसकर सामना ।


पृष्ठ सारे आपके गुणगान से भरने लगे,

और अपना हाशिए में भी लिखा है नाम ना ।

हम बहाते ही रहे खूनो-पसीना एक सा,

कामना उनकी रही जिनका कहीं पर काम ना ।


नाव उनकी हो मग़र पतवार अपने पास है,

जानते हैं किस लहर को किस तरह से काटना ।


हाँ-जी, हाँ-जी करने वालों से घिरे हैं आजकल,

क्या करेंगे वे कभी इंसान का भी सामना ।

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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1/16/2009

रस्‍सी पर चलती लड़की

केवल दो वक्त की
रोटी के लिए
रस्सी पर चलती लड़की

पेट के बैलेन्स के लिए
बनाती है वह
रस्सी पर बैलेंस

तय करती है
खाली पेट से
रोटी तक का सफर
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1/15/2009

अखबार में नहीं


दुःख-दर्द और जान है अख़बार में नहीं,
सच का कहीं रुझान है अख़बार में नहीं ।

केवल हैं मारकाट और मौतों के सिलसिले,
इंसानियत का मान है अख़बार में नहीं ।

मालिक का रोज़-रोज़ कसता है शिकंजा,
कलमों का अब सम्मान है अख़बार में नहीं ।

सौदागरों की देख तो आशीष लिखावटें,
सच का कहीं बयान है अख़बार में नहीं ।
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1/14/2009

तुम्हारे जाने के बाद


आज

पहली बार महसूस हुआ

सुबह की लालिमा में फीकापन

पक्षियों के कलरव में नीरसता

फूलों में ताजगी का अभाव

तुम्हारे जाने के बाद ।

शायद

और भी नाराज है

तुम्हारे जाने से

तभी तो बादलों ने

निकलने नहीं दिया सूरज को

दिन भर की कोशिश के बाद भी

नहीं भेद पाई सूरज की चुभती निगाहें

बादलों के विश्वास को

यही विश्वास

बल दे रहा है

मेरे विश्वास को

तुम्हारे जाने के बाद ।


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संजय परसाई की एक कविता


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1/13/2009

मान जाएँ क्यों नहीं



आप ही बतलाएँ आखिर गुनगुनाएँ क्यों नहीं,

खाइयां हैं हर तरफ तो पुल बनाएँ क्यों नहीं ?


यूँ जिन्दगी में आज तक हम कभी हारे नहीं,

जब हार में ही जीत हो तो हार जाएँ क्यों नहीं ?

रुठने का सिलसिला चलता रहा बरसों-बरस,

है अगर वो नासमझ हम मान जाएँ क्यों नहीं

फ़ासले कायम रहेंगे आप कहते हैं मग़र,

ग़ैर को अपना समझकर घर बुलाएँ क्यों नहीं ?


कोसने से रात को अब तक न कुछ हासिल हुआ,

चीरकर इस रात को दीपक जलाएँ क्यों नहीं ?
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1/12/2009

मंसूबा बेकार होगा



शहर में न अब कोई बीमार होगा,
नुस्खा-ए-उल्फत असरदार होगा ।



सिखाई है सबको उज़ाले की बातें,
वो दिल में यकीनन अंगार होगा ।


है फौलाद लेकिन् नज़रें झुकी हैं,
किसी राजधानी का दरबार होगा ।



तुम्हारी चमकदार रातों से कह दो,
सुबह पर हमारा ही अधिकार होगा ।

कफ़स में यूँ सूरज कब तक रखोगे,

तुम्हारा ये मंसूबा बेकार होगा ।

हमारे मुहल्ले में कल देखना तुम
दिलों से दिलों का सरोकार होगा ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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1/11/2009

गुम गया बाजार में



मेरी मुट्ठी देखकर क्यों आपका दिल डर गया,
आपने ही तो कहा था, डर गया वो मर गया ।

छोड़कर माँ-बाप को निकला कमाने रोटियाँ,
गुम गया बाज़ार में वो लौटकर ना घर गया ।

वो तो खुद्दारी थी उसकी जो खड़ा हरदम रहा,
वरना देखो पेड़ का हर एक पत्ता झर गया ।

शाम को आँगन से सिगड़ी के धुँए उठते नहीं,
रात में तापें किसे वो गुनगुना मंज़र गया ।

सत्य कहने की सज़ा कैसे सुनाएँ आपको,
जो कोई गुज़रा यहां से मुँह बिचकाकर गया ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1/10/2009

साँस रामू की थमी


या तो मुझमें है कमी या फिर उसे कुछ है गुमाँ,

हाथ में ना जाने क्यों आता नहीं है आसमाँ ।


लौट बाज़ार से घर आए हैं जब से कदम,

गाँव की चौपाल पर दिखता नहीं है वो समाँ ।


घर नया, ज़ेवर नया, बीवी की खातिर कार भी,

ना मिटी माई की खाँसी, ना ही बापू का दमा ।


राजधानी से चला था एक रुपया गाँव को,

साँस रामू की थमी रुपया नहीं अब तक थमा ।


इक परिन्दा कै़द में था और अचानक उड़ गया,

तोड़कर वह बन्धनों को कह गया घर ना जमा ।

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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1/09/2009

आपके सेवक



रात की खामोशियों में हमने ऐसा कुछ सुना,

जाल फिर से रोशनी के वास्ते तम ने बुना ।


बात सच है अब हिफाज़त हाथ में किसके रखें,

रहनुमा कोई तो डाकू या कोई है सरगना ।

कुछ करें साहिबजी घर की आबरु है लुट रही,

वो दारोगा हँस पड़ा रामू के मुँह से जब सुना ।


काटकर जेबें सभी की इक महल बनवा लिया,

आपके सेवक जो ठहरे आपने ही तो चुना ।


अब बहस होती नहीं है, रोटियों के वास्ते,

मुद्दुआ फायर हुआ है या हुई है वन्दना ।


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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1/08/2009

शब्द का इक बाण







ना ही दिल छोटा करें और ना ही यूँ माने बुरा,

क्या करुँ लाचार हूँ बोले ही जाता हूँ खरा ।



आपकी दुनिया में तो खामोशियों का काम है,

मुँह जिसका भी खुला बेमौत समझो वो मरा ।



शब्द का इक बाण तरकश से कभी जो चल गया,

बात वर्षों है पुरानी, घाव अब तक है हरा।



आप लिखना चाहते हैं तो लिखें कुछ यूँ लिखें,

बात चाहे हो किसी की पर लगे अपनी ज़रा ।



बात करता हूँ कभी भी बैठकर इंसान की,

लोग कहते मूर्ख है या फिर कोई है सरफिरा।

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1/07/2009

रहजनों की भीड़ है



जो कोई गुज़रा यहां से डर गया,

पास ही मंज़िल थी लेकिन मर गया ।



एक पल सोचा कि मुश्किल आएगी,

और इतनी देर में अवसर गया ।



अब अमानत में खयानत तय समझ,

रहजनों की भीड़ है रहबर गया ।



चाहते थे दिल से अपना दिल मिले,

दूर से भी कोई ना छूकर गया।



शख्स जो बेखौफ़ था, बेलौस था,

छोड़कर मैदान अपने घर गया ।



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1/06/2009

आओ कुछ करें



खामोश है सारा ये नगर आओ कुछ करें,

वीरान है हर एक डगर आओ कुछ करें ।


मज़हबी ज़ज्बात को भड़का रहे हैं वे,

फैला रहे हवा में ज़हर आओ कुछ करें ।


चोरी छुपे वे भेजते हैं अपने आदमी,

इस मुल्क पै' उनकी है नज़र आओ कुछ करें।


इस क़ौम को आगे बढ़ाने में लगे हैं वे,

उस क़ौम पर उनका है कहर आओ कुछ करें ।


चल रहे हैं साथ में उनके तमाम लोग,

इस उम्र पै’ उनका है असर आओ कुछ करें ।


जंग और फिसाद से किसका हुआ भला,

लाशें बिछी है दर-ब-दर , आओ कुछ करें ।


बादल घिरे हैं नफ़रतों के आज हर कहीं

इंसानियत पर देख कहर आओ कुछ करें ।


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1/05/2009

खो गया वो घर हमारा



भूख जीती पेट हारा, इस सदी के अन्त में ,

बन गई है भूख नारा, इस सदी के अन्त में ।


इस गगन में झूठ के सूरज दिखाई दे रहे,

सत्य का दिखता न तारा, इस सदी के अन्त में ।


घर के पिछवाड़े पड़े मां-बाप का तो आजकल,

लाठियां ही है सहारा, इस सदी के अन्त में ।


थे जहां बुनियाद में किस्से मुहब्बत के दबे,

खो गया वो घर हमारा, इस सदी के अन्त में ।


नव सदी हमको समन्‍दर तक तो ले ही जाएगी,

किन्तु कब दिखता किनारा, इस सदी के अन्त में ।

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1/04/2009

सूरज नई सदी का




देखें क्या-क्या कर पाता है सूरज नई सदी का,

तम को कितना हर पाता है सूरज नई सदी का ।


देख नज़रें थक बैठी है हर चेहरे की आंखें,

कितनी नज़रों को भाता है सूरज नई सदी का ।


गांवों की गलियों में मांगू आस लगाए बैठा,

क्या उसके भी घर जाता है सूरज नई सदी का ।


हर पल जो मरता रहता है उसके जीवन की खातिर,

कब-कब कितना मर पाता है सूरज नई सदी का ।


बीज फ़सादों के जितने भी बोए गई सदी ने,

उनमें क्या अन्‍तर लाता है सूरज नई सदी का ।


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आशीष दशोत्‍त ‘अंकुर’ की एक गजल


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1/03/2009

भविष्‍यवाणी




।। भविष्यवाणी ।।


ज्योतिषी ने बाँच कर कुण्डली


बताया है, वक्त बुरा है ।


ठीक नहीं है ग्रहों की चाल


अभी और गहराएगा संकट ।


फले-फूलेगा भ्रष्‍टाचार


अपराध बढ़ेंगे


पाखण्ड का बोलबाला होगा


चालाकी होगी सफल


झूठ आगे रहेगा सच के


अच्छाई की राह में


अभी और काँटे हैं ।




पंछी से आकाश और होगा दूर


खिलने से ज्यादा मुश्किल होगा


फूल का शाख पर टिके रहना ।


नदियों में नहीं होगा पानी


हवा में घुलेगा जहर ।




बच्चों को नहीं मिलेगा समय


कि तैरा पाएँ कागज की कश्‍ती


वे कहानियों की जगह


गुनेंगे सामान्य ज्ञान ।




बाहर तो बाहर


घर में भी महफूज


नहीं रहेंगी बच्चियाँ ।


बुजुर्गों का इम्तिहान


और कड़ा होगा ।


बुरे वक्त में चाहें अनुष्ठान‍ न करवाना


दान-धर्म न हो तो


कोई बात नहीं


हो सके तो बचाना


अपने भीतर सपने


भले ही हों वे


आटे में नमक जितने ।


मुश्किल घड़ी में जीना


सपनों के आसपास ।


देखना फिर नक्षत्र बदलेंगे


बदलेगी ग्रहों की चाल ।


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पंकज शुक्‍ला 'परिमल' के काव्‍य संग्रह 'सपनों के आसपास' की यह पहली कविता मैं ने अपने ब्लाग 'एकोऽहम्' पर दिनांक 15 नवम्बर 2008 को पोस्ट की थी । यह कविता यहां देने का एक ही अभिप्राय है कि पंकज के इस काव्य संग्रह की समस्त कविताएं एक स्‍थान पर उपलब्ध हो जाएं ।


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1/02/2009

मसरुफियत


।। मसरूफियत ।।


बच्चे अब नहीं दुबकते

माँ के आँचल में ।

बच्चे अब नहीं सुनते

कहानी अपनी नानी से ।

बच्चे अब नहीं माँगते

गुड़ धानी दादी से ।

बच्चे अब नहीं खेलते

कंचे या आँख मिचैली ।

बच्चे अब नहीं जानते

चैपाल पर होती थी रामलीला ।

बच्चे अब होमवर्क करते हैं

बच्चे अब बच्चे कहाँ रहे ।


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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता

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1/01/2009

पिता



।। पिता ।।



कितने आँसू बहते हैं,


मासूम गालों पर


दो बूँदों को देख


कितनी पीड़ा होती है,


जेब के आगे


फरमाइशों को टूटता देख


रौब की दीवार के भीतर


कितना मोम है


(यह) पिता बन कर ही जाना ।


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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता


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