आप ही बतलाएँ आखिर गुनगुनाएँ क्यों नहीं,
खाइयां हैं हर तरफ तो पुल बनाएँ क्यों नहीं ?
यूँ जिन्दगी में आज तक हम कभी हारे नहीं,
जब हार में ही जीत हो तो हार जाएँ क्यों नहीं ?
रुठने का सिलसिला चलता रहा बरसों-बरस,
है अगर वो नासमझ हम मान जाएँ क्यों नहीं
फ़ासले कायम रहेंगे आप कहते हैं मग़र,
ग़ैर को अपना समझकर घर बुलाएँ क्यों नहीं ?
कोसने से रात को अब तक न कुछ हासिल हुआ,
चीरकर इस रात को दीपक जलाएँ क्यों नहीं ?
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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बहुत ही सुंदर भाव, सुंदर कविता.
ReplyDeleteधन्यवाद