1/13/2009

मान जाएँ क्यों नहीं



आप ही बतलाएँ आखिर गुनगुनाएँ क्यों नहीं,

खाइयां हैं हर तरफ तो पुल बनाएँ क्यों नहीं ?


यूँ जिन्दगी में आज तक हम कभी हारे नहीं,

जब हार में ही जीत हो तो हार जाएँ क्यों नहीं ?

रुठने का सिलसिला चलता रहा बरसों-बरस,

है अगर वो नासमझ हम मान जाएँ क्यों नहीं

फ़ासले कायम रहेंगे आप कहते हैं मग़र,

ग़ैर को अपना समझकर घर बुलाएँ क्यों नहीं ?


कोसने से रात को अब तक न कुछ हासिल हुआ,

चीरकर इस रात को दीपक जलाएँ क्यों नहीं ?
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1 comment:

  1. बहुत ही सुंदर भाव, सुंदर कविता.
    धन्यवाद

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