1/24/2009

परचम


अल सुबह

खुल जाती है नींद

और घेरने लगती हैं

चिन्ताएं

सोने के समय भी

साथ नहीं छोड़तीं

जागने से पहले ही

देने लगती हैं दस्तक

शायद

अहसास कराती हैं

अपनी उपस्थिति का ।

चढ़ती धूप के साथ ही

दिखाती जाती है

अपना असर/और

शाम होते-होते

कर देती है निढाल

रात की कालिमा सी गहराती

क्षीण करती जाती हैं

विचारों का प्रवाह

यदि सोचना भी चाहूं

कुछ हटकर/तो

जताने लगती हैं

अपना अधिकार

लगाने लगती हैं अंकुश

और कर देती हैं

विचारों के प्रवाह को छिन्न-भिन्न

फिर भी नजरें चुराकर

कर लेता हूं

थोड़ा मंथन

चिन्ता से मुक्ति का

और पा लेता हूं राहत

कुछ क्षणों के लिए।

करता रहता हूं प्रयास

चिन्तन के कोड़े से

चिन्ता को राह पर लाने का।

और/यही प्रयास जारी रहा तो

वह दिन दूर नहीं

जब फहराऊँगा परचम

चिन्ता के भाल पर

चिन्तन की विजय का।

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संजय परसाई की एक कविता


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्‍‍य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001


कृपया मेरे ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com पर भी नजर डाले।

3 comments:

  1. एक बहुत ही सुंदर कविता,
    धन्यवाद

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  2. एक बहुत ही सुंदर कविता,
    धन्यवाद

    ReplyDelete
  3. आदरणीय बैरागी जी
    अभिवंदन
    आपकी टिपण्णी समय चक्र पर देख कर आपके ब्लॉग तक आ पहुँचा .
    आपके द्बारा संजय परसाई की रचना की प्रस्तुति से हम भी लाभान्वित हुए,
    उन्हें हमारा धन्यवाद भेजने का कष्ट करें.
    हम आपका भी आभार मानते हैं
    चिंता पर लिखी रचना बेहद सत्यपरक है
    पसंदीदा पंक्तियाँ---
    करता रहता हूँ प्रयास
    चिन्तन के कोड़े से
    चिन्ता को राह पर लाने का।
    - विजय

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