1/21/2009

बेटियाँ डरने लगीं हैं


ऑँधियाँ ही ऑँधियॉं

चलने लगी हैं इस शहर में,

उल्फतों की वादियाँ

ढलने लगी हैं इस शहर में।


बात जब से सुन रहे हैं

गोली-बम-मिसाइलों की,

हर तवे की रोटियाँ

जलने लगी हैं इस शहर में।


आज फिर इंसान के

तन से लंगोटी छिन गई,

सियासत की गोटियाँ

जमने लगी हैं इस शहर में ।


ये नई तहजीब है

या फिर भयानक स्वप्न है,

बाप तक से बेटियाँ

डरने लगी हैं इस शहर में।


हादसे ही हादसे हैं

अब तो, दिन या रात क्या,

धड़कनें भी आँख को

मलने लगी हैं इस शहर में।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1 comment:

  1. विष्णु बैरागी जी हमेशा की तरह से लाजवाब
    धन्यवाद

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