1/19/2009

जलेगा फिर वहीं चूल्हा

तुम्हारी रात का आलम करे कितनी ही मनमानी,
सहर की बात दूजी है, न इसका कोई भी सानी ।

बदलते वक्त में बदली फिजाएँ और ये मौसम

न फूलों में रहीं खुशबू न सावन में कहीं पानी ।

हमारे घर भी कल रोटी बनेगी देखना बेटा,

जलेगा फिर वहीं चूल्हा जहाँ है आज वीरानी ।

है दिल में इक शमाँ रोशन, हवाएँ क्या बिगाड़ेगी,
रहेगी बस वही दुनिया, कहे जो प्यार की बानी ।



मुझे तुमसे शिकायत है जो यूँ खामोश बैठे हो,

उठाओ हाथ में पतवार रख दो चीरकर पानी।

चलाओ गोलियॉं तुम भी चलाएँ गोलियाँ हम भी,

सियासत के लिए कब तक करेंगे यूँ ही नादानी ।

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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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