1/06/2009

आओ कुछ करें



खामोश है सारा ये नगर आओ कुछ करें,

वीरान है हर एक डगर आओ कुछ करें ।


मज़हबी ज़ज्बात को भड़का रहे हैं वे,

फैला रहे हवा में ज़हर आओ कुछ करें ।


चोरी छुपे वे भेजते हैं अपने आदमी,

इस मुल्क पै' उनकी है नज़र आओ कुछ करें।


इस क़ौम को आगे बढ़ाने में लगे हैं वे,

उस क़ौम पर उनका है कहर आओ कुछ करें ।


चल रहे हैं साथ में उनके तमाम लोग,

इस उम्र पै’ उनका है असर आओ कुछ करें ।


जंग और फिसाद से किसका हुआ भला,

लाशें बिछी है दर-ब-दर , आओ कुछ करें ।


बादल घिरे हैं नफ़रतों के आज हर कहीं

इंसानियत पर देख कहर आओ कुछ करें ।


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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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2 comments:

  1. बहुत अच्छी कविता है..अच्छा लगा पढ़ कर.........

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  2. खो गई है मंजिलें, करें भी तो क्या!
    रास्ते धूमिल हुये, करं भी तो क्या!

    सिर बिना धङ हुआ, करें भी तो क्या!
    नेतृत्व बिक गया, करें भी तो क्या!

    पहचान गुम हुई, करें भी तो क्या!
    दर्द कोई ना सुने, करें भी तो क्या!

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