4/30/2009

कितना गलत है

मैं सुबह से खोज रहा था उसे
हर जगह खोज आया था
जहाँ-जहाँ उसके मिलने की सम्भावना थी
लेकिन वो
नजर न आई
मैं और बेचैन हो उठा
उसे पाने के लिए
मेरा प्यार/और बढ़ता जा रहा था
गुस्सा भी बहुत आ रहा था
लेकिन मजबूर था
उसकी हर चीज
उसकी याद को बढ़ा रही थी
और न मिलने से खीज भी बढ़ रही थी
लेकिन वो है कि
लाख खोजने के बाद भी
नजर नहीं आ रही थी
मैं रह-रहकर
एक ही बात सोच रहा था
कितना गलत है
उसका यूँ अपनी जगह पर न होना ।
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संजय परसाई की एक कविता

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4/29/2009

मुफलिसी

मुफलिसी में एक और मेहमान आया
मँका की दरारों में पीपल उग आया

मुफलिसी में राखी पे बच्चों ने फरमाइश दे दी
बहन ने चिट्ठी में लिखा, ‘‘दादा! हरियाला सावन आया’’

मुफलिसी में जैसे-तैसे चल रहा था घर खर्च
ऐसे में पत्नी का भारी पाँव नजर आया

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विजय शर्मा : स्टेट बैंक ऑफ इन्दौर में काम करते हैं।

पता : ई/जी-12, स्कीम नम्बर-54, विजय नगर, इन्दौर-452010

फोन: (0731) २५५६९६७ मोबाइल: 94259 13132



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4/28/2009

बातें उसे भाती नहीं

आँखों देखी ज़ुबाँ पर आती नहीं है,
ये फिज़ा तो हमको सुहाती नहीं है ।

दिल बहलाने को हैं तरीके बहुत,
टीस मग़र दिल से ही जाती नहीं है ।

जब कभी भी सच बताया है उसे,
हमारे बातें उसे भाती नहीं है ।

ज़िन्दगी के गीत गाए हैं यहाँ,
धड़कने फिर भी यहाँ गाती नहीं है ।

बदलती दुनिया का बदला रुप है,
दीप है तत्पर मग़र बाती नहीं है ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4/27/2009

जोकर

मैं चाहता हूँ
जोकर बन जाना
ताकि लोगो को हँसा सकूँ
उनके गम बाँट सकूँ
और दुःखों का साथी बन जाऊँ
कुछ समय के लिए

ऐसे दुःखों का साथी
जो दुःख नहीं, खुशी दे सकें
कुछ क्षणों के लिए
भीषण तपन में मावठे सी।

लेकिन
आसान नहीं है जोकर बनना
हजारों में एक ही बन पाता है जोकर
क्योंकि
अपना कुछ नहीं होता जोकर के पास

उसकी हँसी ठिठोली

रोना-कूदना-उछलना
सब दूसरों के लिए है

सोचता हूँ
क्या, दे पाऊँगा दूसरों को?
बाँट पाऊँगा उनके गम?

बढ़ा पाऊँगा
उनकी खुशी?

अन्तर्मन ने बार-बार कचोटा

शायद नहीं ....
शायद नहीं ....
शायद कभी नहीं ....।
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संजय परसाई की एक कविता



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4/26/2009

गोठण

अगाध प्रेम का स्रोत फूट रहा था
उसके भीतर

अपने आदीप्त नेत्रों से अनन्त के कितने पलों तक
उसने पुकारा बीह़ड़ों में गुम हो गये अपने आदिम प्रेम को

अपने शैशव को जगाते हुए अपनी वात्सल्य-आतुर उंगलियों से
उसने मुझे भरपूर छू कर देखा
कि कहीं मैं पत्थर तो नहीं हो गया हूँ
कि कहीं मेरे भीतर सूख तो नहीं गई है मिठास
और दूध की धारा

हवा उठी अंगारों पर से राख हटाती हुई,
नदी ने पूछा किसी समुद्र का पता,
वह यहाँ तक आई थी पर्वतों को लाँघती, उफनती हुई

आम के पेड़ों और हरे भरे खेतों की मेड़ों को
अपनी साँसों में न्योतते हुए उसने मुझसे ओज और
पानी की बातें की,
सपनों का एक गाँव भी उसने बसाया है, उसने कहा

बाऱिश की तेज़ झड़ी में काँपती हुई वह एक बेल थी
फलों से लदी हुई,
असंख्य नई पत्तियाँ उसके भीतर आँखे खोल रही थीं/ जेठ की धूप में भी नहीं मरी थीं
कोंपलें

न मालूम कितने जन्मों की गोठण की तरह वह मुझसे
मिल रही थी न मालूम कितने जन्मों के वास्ते

अगाध प्रेम का स्रोत फूट रहा था उसके भीतर,
वहाँ सब नया-नया था और पुराना कुछ भी नहीं था।
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रचना दिनांक 19 फरवरी 2005


रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।

अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।

प्रकाशित कृतियाँ - (कविता संग्रह, हिन्दी) : अंधेरे के कटते पंख, टहनियों से झाँकती किरणें।
(कविता संग्रह, अंग्रेजी) : रिवर्स केम टू माई डोअर, ‘बिफोर द लिव्ज़ टर्न पेल’, लेपर्डस एण्ड अदर पोएम्ज़।


हिन्दी से अंग्रेजी में पुस्तकाकार अनुवाद : नो सूनर, गुड बाई डिअर फ्रेन्ड्स, पोेएट्री आव द पीपल, ए रेड रेड रोज़, तथा ‘सांग आव द मेन’। देश-विदेश की पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित ।

साक्षात्कार, कलम, कंक, नया पथ, अभिव्यक्ति, इबारत, वसुधा, कथन, उद्भावना, कृति ओर आदि पत्रिकाओं में मूल रचनाओं के प्रकाशन के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका, यूरोप एवं रुस के रचनाकारों का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद।

इण्डियन वर्स, इण्डियन लिटरेचर, आर्ट एण्ड पोएट्री टुडे, मिथ्स एण्ड लेजन्ड्स, सेज़, टालेमी आदि में हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद।
एण्टन चेखव की कहानी 'द ब्राइड' और प्रख्यात कवि-समीक्षक-अनुवादक श्री विष्णु खरे की कविता ‘गुंग महल’ का नाट्य रूपान्तर। ‘हिन्दुस्तान’ और ‘पहचान’ अन्य नाट्य कृतियाँ।
अंग्रेज़ी और हिन्दी साहित्य पर समीक्षात्मक आलेख।
जन आन्दोलनों में सक्रिय।
सम्‍‍‍प्रति - शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं विज्ञान महाविद्यालय, रतलाम में अंग्रेजी के प्राध्यापक पद से सेवा निवृत।
सम्पर्क : 6, कस्तूरबा नगर, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001. दूरभाष - 07412 264124

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4/25/2009

हालात बदलिये

पहले दिल की बात बदलिये,
फिर सारे हालात बदलिये ।

दिन जब दिन सा हो जाए तो,
सारी-सारी रात बदलिये ।

उनके पैर सने दिखते हैं,
खुद की तो औक़ात बदलिये ?

ग़म में भी खुशियाँ ही बिखरे,
अ़श्क़ों की बारात बदलिये ।

दम है खुद में तो, डर कैसा?
ये भीख, ख़ैरात बदलिये ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4/24/2009

कड़वा सच

राधाकिशन
उदास
चेहरे पर मायूसी लिए
निकल पड़ा घर से

यह राधाकिशन
कोई किशन सेठ नहीं
कि तफरी के लिए निकला हो

यह तो बेचारा किशना है
एक बेबस/लाचार/कुली ।

निकला है
दो जून रोटी की जुगाड़ में

लेकिन
किशना का साथ
हर बार की तरह
किस्मत ने नहीं दिया

स्टेशन पहुँचा तो
ट्रेन चार घण्टे लेट

किशना ने बीड़ी निकाली
और अपने बुरे समय को
धुएँ में घोलने की
नाकाम कोशिश करता रहा

समय बीता
ट्रेन आई
लेकिन यहाँ भी
बुढ़ापे ने साथ नहीं दिया

कुछ जवाँ कुलियों ने
बड़ी सफाई से
यात्रियों को खुश कर लिया
और/राधाकिशन
अपनी किस्मत पे रोता
भाग्य को कोसता
घर की ओर चल दिया ।

रास्ते भर
तीन जवान बेटियाँ
दो बेरोजगार बेटे
और/रुग्ण पत्नी के
विषय में सोचता


जिन्दगी के एक कठिन सवाल को
हल करने की चेष्टा करता कि
दिन तो गुजर गया
रात कैसे गुजरेगी?
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संजय परसाई की एक कविता


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4/23/2009

कत्थक नाचने वाली लड़की

जब बादाम के पेड़ पर
हरे ताम्बई रंग के नये पत्ते फूटते हैं
मुझे याद आती है
कत्थक नाचने वाली लड़की

बड़ी - बड़ी आँखों और गोल चेहरे वाली
लड़की
जब हथेलियों में महावर का वसन्त
सजाती है
जब आँजती है काजल
बाँधती है अलकों में चाँद
और पैरों में घुँघरू
तब पृथ्वी एक थिरकती हुईं
नर्तकी बन जाती है

कौंधती बिजलियों में लिपटी
बारिश,
और पहाड़ों में उछालें खाती
नदी का निखार
आतुर हो उठता है अंग - अंग में फूटती कविता का
सिंगार करने

तब सरल सी, हवा-सी लड़की
अनुगूंजित दिशाओं में झंकृत नादमयी वीणा होती है

जब बादाम के पेड़ पर
फूटते हैं नये पत्ते
जब चढ़ता है वसन्त के चेहरे पर पानी
मुझे कत्थक नाचने वाली लड़की याद आती है
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रचना दिनांक 7 फरवरी 1996
रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।
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हिन्दी से अंग्रेजी में पुस्तकाकार अनुवाद : नो सूनर, गुड बाई डिअर फ्रेन्ड्स, पोएट्री आव द पीपल, ए रेड रेड रोज़, तथा ‘सांग आव द मेन’। देश-विदेश की पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित ।
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4/22/2009

चाँद पर कर चहलकदमी

मत कर अब ईमान की बातें,
यहाँ पर इंसान की बातें ।

कुर्सियों का दौर है यह,
याद रख मतदान की बातें ।

आँसुओं के इस शहर में,
व्यर्थ है मुस्कान की बातें ।

दिल में ही जब जगह नहीं,
कैसे हो मेहमान की बातें ।

चाँद पर कर चहलकदमी,
भूल जा मैदान की बातें ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4/21/2009

बचपन

लोग कहते हैं
अब मैं ब़ड़ा हो गया हूँ

बच्चों सा
हँस और खिलखिला नहीं सकता
उनकी तरह
छलांगें भी नहीं लगा सकता
यहाँ तक कि
तुतली भाषा में बात भी नहीं कर सकता


और न ही
गेंद समझकर चाँद के लिए
जिद कर सकता हूँ
क्योंकि मैं ब़ड़ा हो गया हूँ

लेकिन मन कहता है नहीं
मैं सोचता हूँ क्यों नहीं

मन कहता है
मैं उस अवस्था में पहुँच गया हूँ
जहाँ वापस बचपन लौट आता है

यानी मेरे ब़ड़प्पन में बचपन
लौट आया है/जहाँ
मैं हँस सकता हूँ
खिलखिला सकता हूँ
तुतला सकता हूँ

लेकिन छलाँगे नहीं लगा सकता
और न ही चाँद को पाने की
जिद कर सकता हूँ

तो क्या यहीं फर्क है
बचपन में और
बड़प्पन के बचपन मे?
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संजय परसाई की एक कविता


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4/20/2009

पथरीले शब्द

अब
जबकि कई दफ़े लगी सिलाई भी
उघड़ चुकी है
और आदमी फटा जूता हो गया है

दर-बदर हो रहे हैं लड़के
और जली औरतों की चीखों से
अस्पताल रोज़ भरते जा रहे हैं

औंधे हो गए हैं अच्छे शब्द
और सब सुन्दर कविताओं की हवा निकल गई है

बस्तियाँ की बस्तियाँ साम्प्रदायिक होती जा रही है,
जिनके दूध के दाँत भी नहीं टूटे
उन बच्चों की नसों में गर्म लोहा
उड़ेला जा रहा है

कोमलता सूख रही है पंखुड़ी-दर-पंखुड़ी
ऐसे में पवित्र शब्दों की वकालत
षडयन्त्रकारियों की मुखबिरी है

बात बात के लाले पड़ रहे हैं
बरसों पुरानी हो गई है नई कमीज की बातें

और हालात ये हैं कि
तुम्हारे अपने ही बैटों ने तुम पर
थूक दिया है

रोग़न लगी कविता कैसे हो सकती है
समय का दस्तावेज़

लगती गर्मियों का यह चाँद
कटते धान के ये खेत
यह तो सब खूबसूरत मंज़र है
जादू में गूँथा हुआ

और इससे किसी को कोई गुरेज नहीं

पर वह जो खौफ़नाक तिलस्म है
जो बहुत सलीक़गी से
तुम्हारी और तुम्हारी नस्लों की हवि ले रहा है,
उसके लिए
यह रेशम, यह कमख़ाब किसी काम का नहीं

पथरीले शब्द ही एक उम्मीद हैं खिड़की की


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रचना दिनांक 5 सितम्बर’94

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।

अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।

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4/19/2009

इक बगावत चाहिए

ज़िन्दगी में ग़र शरारत चाहिए,
तो यक़ीनन मुस्कुराहट चाहिए ।

हाल कुछ बिगड़े हैं यारों इस तरह,
अम्न की हर रोज़ दावत चाहिए ।

कुछ शरीफों के तरह की बात हो,
खुद में भी तो कुछ शराफत चाहिए।

जंग लगता जा रहा इस तन्त्र में,
हल यही है इक बगावत चाहिए ।

गुलिस्ताँ महकाने के लिए ‘आशीष’
नौ- शगुफ्ता फूल सी निक्हत चाहिए।
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4/18/2009

अमृत

देर तक
आसुओं की नदियाँ
बहाई मैंने
और/देर तक
सिसकता रहा मैं


फिर
दो नर्म/नाजुक हाथ
मेरी ओर ब़ढ़े
आँसू पोंछे
और/एकदम
सीने से लगा लिया
देर तक
सीने से लिपटाकर रखा

शायद वह
मेरे रोने/बिलखने के मर्म को
समझ चुके थे

और कुछ समय पश्चात
मैं पुनः पहले सा
खिलखिला रहा था

क्योंकि
मुझे मेरी माँ से
वो अमृत मिल चुका था
जो मेरी भूख/और
रोने का कारण था ।
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4/17/2009

बूढ़ा कवि

बूढ़ा कवि
जो लड़ता रहा ज़िन्दगी भर
भूख और कर्ज़ से
छाती में पूरी सदी का हाहाकार ले कर
बेचैन घूम रहा है बरामदे में
आहत जटायु की तरह

अपने खून और मज्जा में आन्दोलित
भीतर धधकती आग ले कर
उम्र भर वह शब्दों को फौलाद में ढालता रहा
वहाँ
जहाँ आदमी और उसकी नस्लों के वास्ते
रोटी और फूलों की मुहिम शुरू होती है
जहाँ जंग लड़ी जाती है
ग़ैरबराबरी के खात्मे की

उद्वेलित वह झकझोर देगा
आकाश को,
अपनी अस्फुट बुदबुदाहट से
वह देवों की
नींद हराम कर देगा

वह तुम्हारी रचनाधर्मिता को
पशुता के जबड़ों से निकालने के लिए
कोई तदबीर सोच रहा है

कवि लहूलुहान घूम रहा है
बरामदे में
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रचना दिनांक 16 जून 1992

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।
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4/16/2009

हाथों की लकीरें

चूल्हा-चौका, झाडू-बर्तन और हाथों की लकीरें,
बन्द कोठरी बदबू-सीलन और हाथों की लकीरें।

सास -ननदें, पति-देवर और जो भी शेष है,
सहन करती सबकी झिड़कन और हाथों की लकीरें।

कहा था माँ-बाप ने उसको अपना घर समझना,
यहाँ मन से दूर है मन और हाथों की लकीरें ।

है अनुपम भाग इसका, पण्डितों की ही ज़ुबाँ थी,
सहन करती करुण-क्रन्दन और हाथों की लकीरें ।

याद आते बहुत वे पल जो सहेली संग गुज़ारे,
अब तो हर पल वही अनबन और हाथों की लकीरें ।

फटी धोती से ढका तन और माथे पर शिकन,
देख उसको नम है दरपन और हाथों की लकीरें ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4/15/2009

वह एक मानव है

चिलचिलाती धूप में
पसीना बहाता
तन पर फटे कपड़े
और दिल में
रोटी की आस लिए
भविष्य से लड़ता
उम्मीद से झगड़ता
भाग्य को कोसता
तिल-तिल जलता
वह मजदूर

काश !
कोई समझता
वह केवल
एक मजदूर नहीं

उसका भी दिल है
कल्पना है आरजू है

और इन सभी से दूर
और इन सबसे पहले
वह एक मानव है ।
===



संजय परसाई की एक कविता



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4/14/2009

समय के चमकीले माथे पर

मुँह अँधेरे ही इस ठण्डी में कुछ ओढ़-आढ़कर
निकल गई हैं बच्चियाँ खाली बोतलें ढूँढ़ने
जिन्हें रात को पीने वाले सड़कों के आसपास छोड़ गए है

काव्यात्मक नहीं है यह विषय
किन्तु इसने समय के चमकीले माथे पर कील ठोक दी है

यतीमखानों में बदल गई हैं सड़कें
जिनमें रोटी और पानी का पचास-पचास कोस तक
अता-पता नहीं है
हिन्दुस्तान में खेतों में खूब अनाज पैदा होता है
कोठारों में सड़ते रहते हैं गेहूँ के बोरे के बोरे
पर भूखी आँतों तक नहीं पहुँचता अन्न का स्वाद

कौन रोक लेता है उसे बीच में ह

तुम्हारे लिए ये प्रश्न ग़ैर ज़रूरी हैं
क्योंकि तुमने तो मारिजुआना जैसा कोई नशा कर रखा है
या फिर तुम्हें फुर्सत ही नहीं है
सुखों के आस्मान में उड़ने से

भूख का इज़ाफा होता जा रहा है
और एक दिन तुम्हारे चौके तक भी आ जाएगी
और चमचमाती प्लेटे होंगी, चम्मच होंगे
पर गरम-गरम फुलके और पत्ता गोभी का साग तक नहीं होगा
थाली में

तुम आबादी बढ़ने और जात-पात का तो
ढोल पीट रहे हो
और इस पर ख़ामोश हो कि
हत्यारों की संख्या बढ़ती जा रही है
और कई-कई रूपों में वे तुम्हारे घरों में घुस गए हैं
और तुम्हारे सामने ही उन्होंने तुम्हारे बेटों की मुश्कें बाँध दी हैं

मैं तुम्हें डरा या आतंकित नहीं कर रहा
वह काम अमरीका का है जिसके तुम इतने दीवाने हो
और वह खूबसूरती से तुम्हारी अस्मिता रौंद रहा है
और अब तो खुले आम तुम्हारी अमूल्य विरासत की धज्जियाँ उड़ा रहा है

चलो कोई रोमाण्टिक बात करें,

मैं तो सुबह वैसे ही घूमने जा रहा था कि खाली बोतलें वगैरह
बीनने वाली बच्चियाँ अँधेरे में जाते दिख गईं
-----


रचना दिनांक 24 अगस्त 2003

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।
प्रकाशित कृतियाँ - (कविता संग्रह हिन्दी) : अंधेरे के कटते पंख, टहनियों से झाँकती किरणें।
(कविता संग्रह, अंग्रेजी) : रिवर्स केम टू माई डोअर, ‘बिफोर द लिव्ज़ टर्न पेल’, लेपर्डस एण्ड अदर पोएम्ज़।
हिन्दी से अंग्रेजी में पुस्तकाकार अनुवाद : नो सूनर, गुड बाई डिअर फ्रेन्ड्स, पोएट्री आव द पीपल, ए रेड रेड रोज़, तथा ‘सांग आव द मेन’। देश-विदेश की पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित ।
साक्षात्कार, कलम, कंक, नया पथ, अभिव्यक्ति, इबारत, वसुधा, कथन, उद्भावना, कृति ओर आदि पत्रिकाओं में मूल रचनाओं के प्रकाशन के साथ-साथ दक्षिण अफ्रीका, यूरोप एवं रुस के रचनाकारों का अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद।
इण्डियन वर्स, इण्डियन लिटरेचर, आर्ट एण्ड पोएट्री टुडे, मिथ्स एण्ड लेजन्ड्स, सेज़, टालेमी आदि में हिन्दी के महत्वपूर्ण कवियों की कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद।
एण्टन चेखव की कहानी ‘द ब्राइड’ और प्रख्यात कवि-समीक्षक-अनुवादक श्री विष्णु खरे की कविता ‘गुंग महल’ का नाट्य रूपान्तर। ‘हिन्दुस्तान’ और ‘पहचान’ अन्य नाट्य कृतियाँ।
अंग्रेज़ी और हिन्दी साहित्य पर समीक्षात्मक आलेख।
जन आन्दोलनों में सक्रिय।
सम्प्रति - शासकीय स्नातकोत्तर कला एवं विज्ञान महाविद्यालय, रतलाम में अंग्रेजी के प्राध्यापक पद से सेवा निवृत।
सम्पर्क : 6, कस्तूरबा नगर, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001. दूरभाष - 07412 264124


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4/13/2009

कलियुगी कमाल देखिये

हर बात पर सिर्फ़ बवाल देखिये,
खूनो-खंजर और धमाल देखिये ।

विक्षिप्त मानसिकता का दौर है यह,
बुझा-बुझा हर खयाल देखिये ।

गधे -घोड़े सभी जमे हैं कुर्सी पर,
वक्त का कलियुगी कमाल देखिये ।

रहनुमा जब राहजन बन गए हैं,
मिसालों में ऐसी मिसाल देखिए ।

व्यर्थ की बातों में दबा पड़ा है,
मेरा वो अहम् सवाल देखिये ।
-----



आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4/12/2009

हर रात स्वप्न में

हर रात स्वप्न में
एक नदी उम़ड़ती है
अनन्त दिशाओं/मार्गों को
पार करती हुई/और
वहीं मु़ड़ जाती है
जहाँ तुम्हारा वास है ।

हर रात स्वप्न में
दिखाई दे जाती है
मुस्कुराती/खिलखिलाती
तुम्हारी सूरत
जिसे देखने को
तड़पता रहता हूँ
दिन में ।

हर रात स्वप्न में
दिखाई दे जाती हैं
तुम्हारी नम आंखें
जो हर पल
कुछ कहने को
रहती हैं आतुर ।

हर रात स्वप्न में
चुपके से
आ जाती हो तुम
कर जाती हो मीठी बातें
और दे जाती हो सम्बल
तुम्हें पाने के अटूट विश्वास को।
-----
संजय परसाई की एक कविता

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4/11/2009

शोक गीत

बेटी तुमने ज़हर खा लिया
अच्छा नहीं किया

ख़्वाब में भी नहीं सोचा था
तू इतनी जल्दी हार जायेगी

बहुत जल्दी कर गई तू

सत्रह-अठारह साल की उम्र में
क्या समझा दुनिया को

बड़ी होती, समझ पैदा करती
दुनिया के षड़यन्त्रों को समझती
कोई तोड़ निकालती

वैसे तमाम औरतें पीती हैं
ज़हर आहिस्ता - आहिस्ता
पर खड़ी रहती हैं
अग्निस्तम्भ की तरह
उफनते दहाड़ते समुद्रों में

और समय आने पर फोड़ देती है
पृथ्वी का खोल

औरत के हिस्से
केवल गलाज़त नहीं
वह अपना हक़ माँगती है
वसन्त के फूलों पर भी

वह केवल घरों में सजा
गुलदान नहीं
दीमक खाया काठ का टुकड़ा नहीं

एक पूरा जंगल है हरहराता हुआ

इन सब चीज़ों को समझती तो सही
लोगों से मिलती, बात करती

ज़हर खा कर अच्छा नहीं किया बेटी तूने
-----

रचना दिनांक 31 जुलाई’ 98

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
अंग्रेज़ी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि।
प्रकाशित कृतियाँ - (कविता संग्रह हिन्दी) : अंधेरे के कटते पंख, टहनियों से झाँकती किरणें।
(कविता संग्रह, अंग्रेजी) : रिवर्स केम टू माई डोअर, ‘बिफोर द लिव्ज़ टर्न पेल’, लेपर्डस एण्ड अदर पोएम्ज़।
हिन्दी से अंग्रेजी में पुस्तकाकार अनुवाद : नो सूनर, गुड बाई डिअर फ्रेन्ड्स, पोएट्री आव द पीपल, ए रेड रेड रोज़, तथा ‘सांग आव द मेन’। देश-विदेश की पत्रिकाओं में अनुवाद प्रकाशित ।
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4/10/2009

दौरे-मुसीबत गुजर जाएगा

दुनिया में हर कहीं है ज़रुरत सुकून की,
करनी पड़ेगी आज इबादत सुकून की।

चैनो-अमन का पाठ ही पढ़ते रहो सदा,

लिखते रहो दिन-रात इबारत सुकून की ।

हर कदम बढ़ाने से पहले ही सोच लो,
चलने से पहले ले लो इजाज़त सुकून की ।

मेल और मिलाप की मिट्टी को जोड़कर
खड़ी करो मजबूत इमारत सुकून की ।

यह दौरे-मुसीबत गुज़र जाएगा यूँ ही
होगी कभी तो हम पे इनायत सुकून की ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4/09/2009

कौआ

कौआ
बार-बार जानवर की
पीठ पर घाव करता,

जानवर को
लहूलुहान देख
हम उसे उ़ड़ाने का प्रयत्न करते
किन्तु/वह पुनः प्रयास करता

उसे हम बदसगुन समझ
उड़ा देते/और

कुछ समय पश्चात
वहीं कौआ हमारे घर की
मुंडेर पर बोलता
तो किसी अतिथि के आगमन का
आभास कराता

और हम उसे शुभ शगुन समझ
उसे धन्यवाद देते
बार-बार देते
कई बार देते ।
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संजय परसाई की एक कविता




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4/08/2009

श्रीमती पद्मा भाम्भ्रा कहती है

श्रीमती पद्मा भाम्भ्रा कहती है
अब मैं उस ईश्वर पर लिखूँ कविता
जिसने बनाई यह सृष्टि
आकाश, गगन, धरती, सब कुछ

पर मैं बीहड़ो का जोगी,
गायक बनफूलों का
और मेंहदी की उन नर्म नाजुक
टहनियों का
जिन्होंने बारिश की पहली बौछारों में
नहा कर
हरे बीजों के घुँघरू पहन लिए हैं

ऐसा नहीं कि मैंने ईश्वर को खोजा नहीं,
मैं तीर्थों में गया पवित्र से पवित्रतम
और महान से महानतम
मैंने वहाँ धनलोलुप निर्दयी पण्डों को देखा
और ईश्वर भी खूब था
उसने भी पण्डों को इजाजत दे रखी थी
कि वे चाहें जिस भाव से
उसको बेचें

मुझे ऐसे ईश्वर से ज़्यादा अच्छी लगी
वह लड़की
जो भाग रही है नीली स्कूटी पर
आस्मान को थहाने

वह चर्बी चढ़ा, मँहगी सफ़ारी में,
ताम्बूल से होंठ रचाए अधिकारी
क्या ईश्वर की अनुपम कृति है
जो इतनी सहजता से भ्रष्टाचार करता है
जैसे अपने पुश्तैनी घर के आँगन में बैठा
बाप-दादों की सम्पत्ति अपनी गाय का दूध
दुह रहा हो

मैं इन सबसे दूर भाग आया
आकाश में छाये इन्द्रधनुष के पास,
गाँव के काले नभ में
जलते असंख्य जुगनुओं की दुनिया में,

मुझे रठांजना गाँव का वह बूढ़ा किसान
अच्छा लगा
जो मुझे घर से भूखा नहीं जाने देगा
और जो मुझे चिट्ठी लिखने का आग्रह
ऐसे ही करता है
जैसा मुझे छोड़ने आया लगभग
मेरे ताँगे के पीछे दौड़ता
मेरा बूढ़ा बाप करता था
जब मैं दूर देस नौकरी करने गया था

गौरया की आवाज़ अधिक पानीदार हो गई है
बारिश के इन पहिले महीनों में
और काले बबूलों ने ओढ़ ली हैं नई पत्तियाँ

अभी मैं ईश्वर नहीं अपनी जवान हो गई बेटी
की शादी की चिन्ता में डूबा हुआ हूँ

पर श्रीमती भाम्भ्रा कहती है कि

मैं परमपिता परमेश्वर पर
लिखूँ कविता
जिसने रचा यह सब कुछ
सुख दुःख, मोह ममता
माया जाल
-----
रचना दिनांक 13.07.2000

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
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4/07/2009

नहीं है आसान रोटी

सुबह रोटी-शाम रोटी,
ज़िन्दगी का नाम रोटी ।

आप खाओ हलवा-पूरी,
अपना घी- बादाम रोटी ।

भूख ने कहा ऐ कासिद,
है मेरा पैग़ाम रोटी ।

बिलखते इन मासूमों की,
सिर्फ इक मुस्कान रोटी ।

गरीबों की झोंपड़ी में,
है बहुत सम्मान रोटी ।

अल्ला-रामा सभी झूठे,
गीता और कुरआन रोटी।

लगे है आसान ‘आशीष’
नहीं है आसान रोटी ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4/06/2009

आत्मविश्वास की लौ

तुम सोचते हो
कि बदल दोगे
दुनिया का नक्शा
कर लोगे दुनिया पर हुकूमत

लेकिन तुमने सोचा है कभी
कि एक नन्हा सा दीया
देता है अँधेरे को चुनौती
क्यों?
क्योंकि है उसमें आत्मविश्वास
अँधेरे को मात कर देने का

नहीं समझता वो अपने को छोटा
तभी तो
नन्हीं सी बाती को तलवार बना
भिड़ जाता है अँधेरे से
और
आत्मविश्वास की लौ से
करता है रोशन
बस्तियों को

और तुम सोचते हो/कि
बदल दोगे दुनिया का नक्शा
तो अँधेरा कायम रखने का
तुम्हारा ये ख्वाब कभी पूरा नहीं होगा

क्योंकि ऐसे कई दीपक
खड़े हैं तुम्हारी राह में
जो आत्मविश्वास की रोशनी से
कर देंगे अँधेरे का सर्वनाश
और तुम्हारे मन्सूबों को ध्वस्त

अब भी समय है .....
सम्भल जाओ
या फिर खड़े रहो
अपने अस्तित्व के
समाप्त होने तक।
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4/05/2009

चौराहे पर गणतन्त्र दिवस

मोटरों की गहमागहमी वाले उस चौराहे पर
लोग जमा हो गए थे स्कूली बच्चों के साथ
टैगोर और इक़बाल के तरानों को
फिर गाने
और उस बूढ़ी टीचर के साथ
आदिम प्रार्थना के उन शब्दों को दोहराने
कि सागर और नदियों को बाँटने के बाद
अब हम नहीं बाँटें आदमियों को
कि जो धरती देती है हमें अन्न और जल
हमारा बड़ा से बड़ा बलिदान
नाकाफी है उस धरती के लिए,

अचानक आज़ादी का परचम लहरा उठा
चर्च की घण्टियाँ बजने लगी
बाँस के पेड़ों पर फुदकने लगे परिन्दे,

इन परिन्दों की हिफाज़त के वास्ते
फादर लल्ली ने प्रार्थनाएँ पढ़ीं
और बच्चों ने कविताएँ

मुझे लगा उस काले फटे कोट में
चौराहे पर टहलता वह आदमी जीज़स है
जो गा रहा था पाल राब्सन का
गीत बच्चों के साथ
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रचना दिनांक 26 जनवरी 1991

रतन चौहान : 6 जुलाई 1945, गाँव इटावा खुर्द, रतलाम, मध्य प्रदेश में एक किसान परिवार में जन्म।
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4/04/2009

सच कहीं दिखता नहीं

दुःख के साथ सुख को भी शुमार कर चलें,
ज़िन्दगी को इस तरह सँवार कर चलें ।

वक्त का हर मोड़ है सुलगता कारवॉं,
मुश्किलों के दौर को भी पार कर चलें ।

ढोल-वीणा - जलतरंग - सन्तूर की तरह,
ज़िन्दगी को सुरीला संसार कर चलें ।

वजूद है इंसान का और रहेगा यही,
इंसानियत पै, हर घड़ी निसार कर चलें ।

झूठ के’ माहौल में सच कहीं दिखता नहीं,
आज इस गुबार को भी पार कर चलें ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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