अब मैं ब़ड़ा हो गया हूँ
बच्चों सा
हँस और खिलखिला नहीं सकता
उनकी तरह
छलांगें भी नहीं लगा सकता
यहाँ तक कि
तुतली भाषा में बात भी नहीं कर सकता
और न ही
गेंद समझकर चाँद के लिए
जिद कर सकता हूँ
क्योंकि मैं ब़ड़ा हो गया हूँ
लेकिन मन कहता है नहीं
मैं सोचता हूँ क्यों नहीं
मन कहता है
मैं उस अवस्था में पहुँच गया हूँ
जहाँ वापस बचपन लौट आता है
यानी मेरे ब़ड़प्पन में बचपन
लौट आया है/जहाँ
मैं हँस सकता हूँ
खिलखिला सकता हूँ व
तुतला सकता हूँ
लेकिन छलाँगे नहीं लगा सकता
और न ही चाँद को पाने की
जिद कर सकता हूँ
तो क्या यहीं फर्क है
बचपन में और
बड़प्पन के बचपन मे?
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संजय परसाई की एक कविता
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बहुत खूब।
ReplyDeleteजिन्दगी कहते हैं बचपन से बुढ़ापे का सफर।
लुत्फ तो हर दौर का है पर जवानी और है।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
very nice wording...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...और भी तो मित्र धन होंगे..उन्हें भी स्थान दें. एक तो लिख ही रहा है यह टिप्पणी. :)
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