उदास
चेहरे पर मायूसी लिए
निकल पड़ा घर से
यह राधाकिशन
कोई किशन सेठ नहीं
कि तफरी के लिए निकला हो
यह तो बेचारा किशना है
एक बेबस/लाचार/कुली ।
निकला है
दो जून रोटी की जुगाड़ में
लेकिन
किशना का साथ
हर बार की तरह
किस्मत ने नहीं दिया
स्टेशन पहुँचा तो
ट्रेन चार घण्टे लेट
किशना ने बीड़ी निकाली
और अपने बुरे समय को
धुएँ में घोलने की
नाकाम कोशिश करता रहा
समय बीता
ट्रेन आई
लेकिन यहाँ भी
बुढ़ापे ने साथ नहीं दिया
कुछ जवाँ कुलियों ने
बड़ी सफाई से
यात्रियों को खुश कर लिया
और/राधाकिशन
अपनी किस्मत पे रोता
भाग्य को कोसता
घर की ओर चल दिया ।
रास्ते भर
तीन जवान बेटियाँ
दो बेरोजगार बेटे
और/रुग्ण पत्नी के
विषय में सोचता
जिन्दगी के एक कठिन सवाल को
हल करने की चेष्टा करता कि
दिन तो गुजर गया
रात कैसे गुजरेगी?
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संजय परसाई की एक कविता
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सीधी, सच्ची, सरल कविता। छंदबद्ध कविता अगर नहीं है तो कम से कम दिल की बात बिना शब्दजाल फेंके तो सम्प्रेषित हो सके।
ReplyDeleteकवि सफल है।
जै जै