बार-बार जानवर की
पीठ पर घाव करता,
जानवर को
लहूलुहान देख
हम उसे उ़ड़ाने का प्रयत्न करते
किन्तु/वह पुनः प्रयास करता
उसे हम बदसगुन समझ
उड़ा देते/और
कुछ समय पश्चात
वहीं कौआ हमारे घर की
मुंडेर पर बोलता
तो किसी अतिथि के आगमन का
आभास कराता
और हम उसे शुभ शगुन समझ
उसे धन्यवाद देते
बार-बार देते
कई बार देते ।
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संजय परसाई की एक कविता
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लगता है यह कौए की नहीं हमारी धारणाओँ की कविता है।
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