4/06/2009

आत्मविश्वास की लौ

तुम सोचते हो
कि बदल दोगे
दुनिया का नक्शा
कर लोगे दुनिया पर हुकूमत

लेकिन तुमने सोचा है कभी
कि एक नन्हा सा दीया
देता है अँधेरे को चुनौती
क्यों?
क्योंकि है उसमें आत्मविश्वास
अँधेरे को मात कर देने का

नहीं समझता वो अपने को छोटा
तभी तो
नन्हीं सी बाती को तलवार बना
भिड़ जाता है अँधेरे से
और
आत्मविश्वास की लौ से
करता है रोशन
बस्तियों को

और तुम सोचते हो/कि
बदल दोगे दुनिया का नक्शा
तो अँधेरा कायम रखने का
तुम्हारा ये ख्वाब कभी पूरा नहीं होगा

क्योंकि ऐसे कई दीपक
खड़े हैं तुम्हारी राह में
जो आत्मविश्वास की रोशनी से
कर देंगे अँधेरे का सर्वनाश
और तुम्हारे मन्सूबों को ध्वस्त

अब भी समय है .....
सम्भल जाओ
या फिर खड़े रहो
अपने अस्तित्व के
समाप्त होने तक।
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संजय परसाई की एक कविता




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4 comments:

  1. "अब भी समय है .....
    सम्भल जाओ
    या फिर खड़े रहो
    अपने अस्तित्व के
    समाप्त होने तक।"
    कविता में चेतना का सन्देश।
    बधाई स्वीकार करें।

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  2. बहुत सुन्दर भाव।बहुत बढिया रचना।बधाई स्वीकारें।

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