ज़िन्दगी को इस तरह सँवार कर चलें ।
वक्त का हर मोड़ है सुलगता कारवॉं,
मुश्किलों के दौर को भी पार कर चलें ।
ढोल-वीणा - जलतरंग - सन्तूर की तरह,
ज़िन्दगी को सुरीला संसार कर चलें ।
वजूद है इंसान का और रहेगा यही,
इंसानियत पै, हर घड़ी निसार कर चलें ।
झूठ के’ माहौल में सच कहीं दिखता नहीं,
आज इस गुबार को भी पार कर चलें ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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अच्छी ग़ज़ल है भाई!
ReplyDeleteबहुत बढिया गज़ल है।बधाई।
ReplyDeleteBAHOT KHUB.........BADHAAYEE
ReplyDeleteARSH
बहुत बढिया लिखा है ... बधाई।
ReplyDeleteबहुत बढिया, अति सुंदर लिखा है .
ReplyDeleteधन्यवाद