4/04/2009

सच कहीं दिखता नहीं

दुःख के साथ सुख को भी शुमार कर चलें,
ज़िन्दगी को इस तरह सँवार कर चलें ।

वक्त का हर मोड़ है सुलगता कारवॉं,
मुश्किलों के दौर को भी पार कर चलें ।

ढोल-वीणा - जलतरंग - सन्तूर की तरह,
ज़िन्दगी को सुरीला संसार कर चलें ।

वजूद है इंसान का और रहेगा यही,
इंसानियत पै, हर घड़ी निसार कर चलें ।

झूठ के’ माहौल में सच कहीं दिखता नहीं,
आज इस गुबार को भी पार कर चलें ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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5 comments:

  1. बहुत बढिया गज़ल है।बधाई।

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  2. बहुत बढिया लिखा है ... बधाई।

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  3. बहुत बढिया, अति सुंदर लिखा है .
    धन्यवाद

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