11/28/2008

दंगाई



।। दंगाई ।।



उनके खाते में नहीं है


कोई उपलब्धि


हमेशा तालियाँ पीटने वालों


में ही शुमार रहे


कभी नहीं रहे मुखिया ।


स्कूल क्रिकेट टीम में भी


सबसे आखिरी में होता था


उनका नाम ।


पिता के लिए वे नालायक ही रहे


माँ ने कभी समझा नहीं बड़ा ।


ऐसे लोगों के पास भी


कुछ किस्से हैं, सुनाने को ।


किस्से उस रात के ।


कैसे थम गई थीं उन्हें


देख लोगों की साँसें


कैसे ऊँची दुकान का काँच


एक ही पत्थर में


भरभरा कर गिर गया था ।


वे खुद सोचते होंगे


कहाँ से आ गई थी


उनमें इतनी ताकत


कैसे कर दिया था,


एक ही बार में


धड़ सर से अलग ।
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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता


मैं पंकज के प्रति मोहग्रस्त हूँ, निरपेक्ष बिलकुल नहीं । आपसे करबध्द निवेदन है कि कृपया पंकज की कविताओं पर अपनी टिप्पणी अवश्य दें ।



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11/27/2008

उस एक दिन



।। उस एक दिन ।।



जैसा सुना था ठीक वैसा ही


पाया तुम्हें भोजताल ।


अतुल जलराशि


जहाँ तक देख पाता हूँ


तुम्हीं नजर आते हो


धीर-गम्भीर


अपने सृष्‍टा की तरह प्रजापालक ।


हर शाम तुममें उतरता है


थका-हारा दिनकर ।


सुबह के साथ वह फिर


निकलता है फेरी पर


हो कर तरोताजा ।


उस आग उगलते सूरज


से परेशान होकर ही अजय


आया था तुम्हारी गोद में


डुबकियाँ मारने, गोते लगाने


मगर तुमने नहीं लौटाया उसे ।


तुम्हारे आगे घण्टों बहती रहीं


दो जोड़ी आँखें,


बेबस निगाहें हर लहर पर टिकी रहीं


मगर शान्त बने रहे तुम


जैसे कुछ हुआ ही न हो ।


जीवन देने वाले भगवान से


लाश दिलवाने की प्रार्थनाएँ


की जाती रहीं


फिर भी नहीं पसीजे तुम ।


कैसे प्रजापालक हो ?


दिनकर को तो कभी नहीं रोकते


फिर उस घर के सूरज को


क्यों रोक लिया अपने भीतर ।


कहो तो ?


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(भोपाल के बड़े तालाब में डूबे किशोर अजय को याद करते हुए)


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11/26/2008

सागर



।। सागर ।।



किनारे पसरी रेत पर


जमा भीड़, तुम्हारी लहरों में


ही तो तिरोहित करती है


अपने तनाव, अपने दुःख


अपना अकेलापन ।


दो दीवाने तुम्हारी लहरों


पर जिन्दगी का गीत रचते हैं ।


रोज लगता है मेला,


तुम्हारे ही सहारे कटती है


किसी की साँझ, किसी की जिन्दगी ।


मित्र, हमारी तो रोज सुनते हो


कभी अपनी नहीं कहते ।


देख रहा हूँ आजकल


मर्यादा पसन्द नहीं आ रही है ।


अपने तटबन्ध तोड़ने में


मजा आने लगा है तुम्हें ।


चाँदनी को देख ज्यादा


अधीर हो उठते हो तुम ।


ये कैसी अकुलाहट है,


कहो तो क्या परेशानी है


या तुम्हें भी जमाने की हवा लग गई है ?
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11/25/2008

बाजार



।। बाजार ।।



आओ, आओ, बोली लगाओ


जितना लगाओगे, उतना पाओगे ।


कोई फरेब नहीं, झूठा दिलासा नहीं


खुला खेल फर्रूखाबादी है


पारदर्शिता की पूरी गारण्टी है ।


जितनी बड़ी होगी लालसा


उतना ही दूर जाओगे


कम खर्च में बड़ा सुख पाओ


आओ, आओ, बोली लगाओ ।


यहाँ सब बिकता है, जितना लगाओगे


गारण्टी हमारी है, उससे दोगुना पाओगे ।


जनाब, ये रिश्‍ते क्या हैं, इन्हें दाँव पर चलिए


सीढ़ी बना कर आगे बढ़िए ।


भावनाओं का अब काम नहीं है ।


नैतिकता, मौलिकता,


दया, प्रेम, विश्‍वास और न्याय,


ये क्या करते हो


आना और गिन्नी का नहीं


ये डालर का जमाना है,


कोई बड़ा दाँव चलिए


कीमती है जो, वो बात कहिए ।


बोलो अपना चेहरा बेचोगे ?


बदले में देखो कितने मुखौटे पाओगे


ये खुशी का, ये सुख का


और ये मुखौटा रुतबे का


एकदम बढ़िया, इसे लगाओ तो


कोई नहीं पहचानेगा


मुखौटे के पीछे का दर्द कोई नहीं जानेगा ।


तुम भी जब ये मुखौटा लगाओगे,


सच कहता हूँ


अपना चेहरा भूल जाओगे ।


फिर कहता हूँ, मौके की बात है


डिस्काउण्ट भी साथ है


चलिए, कुछ बड़ा दाँव चलिए


कुछ न हो तो खुद को चलिए


यह बाजार है, यहाँ सब बिकता है


अपने सपने, इच्छाएँ अपनी


उम्मीदें, साँसें अपनी


दिन, रात, हर चीज की कीमत है


जितना बेचोगे, उससे ज्यादा पाओगे


फिर एक दिन


तुम भी बाजार हो जाओगे ।


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11/24/2008

चिट्ठी



।। चिट्ठी ।।


कब आती हैं ज्यादा चिट्ठियां


सुख में, दुख में


बसन्त या पतझड़ में ?


किसे रहता है चिट्ठी का


सबसे ज्यादा इन्‍तजार


शहर गए बेटे को,


घर में रह गए माँ-बाप को


प्रेमी को, विरहणी नायिका को


या नौकरी तलाशते युवा को ?


कब लिखी जाती हैं


सबसे ज्यादा चिट्ठियाँ


बचपन में, जवानी में


बुढ़ापे में ?


कब मिलता है


सबसे ज्यादा सुख


चिट्ठी लिखने में या चिट्ठी पाने में ?


पूरी पीढ़ी इस बात से अनजान है


लाख टके के सवाल पर हैरान है ।


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11/23/2008

ब‍हुत दिनों बाद



।। बहुत दिनों बाद ।।

बहुत दिनों बाद,

आज डाकिया मेरे घर आया


और छोटी का खत लाया ।

उसने लिखा,

‘‘पापा की तबीयत ठीक है

भय्यू पढ़ाई करता है

सभी याद करते हैं ।

घर कब आओगे भइया ?’’

फोन पर कहाँ होता है यह सब

कहाँ कह पाते हैं वह
जो बह रहा है दिल-दिमाग में ।

नहीं जान पाते हम कि

बाबूजी क्यों परेशान हैं

जीजी का घुटना दर्द करता है

काम से रात गए लौटते हैं मामा

और, तल्लीन बहुत उधम करता है ।

फोन पर कहाँ मालूम होता है कि

इस बार खूब पकी है

पड़ोस वाले जीजाजी की आँवली

नानी अब सयानी हो गई है

टूट कर गिर गया है

आँगन का बरसों पुराना नीम

कि पास वाले बा’ साहब की

खाँसी बढ़ गई है ।

आज जब खत आया

जैसे पूरा घर मेरी हथेलियों पर था ।

‘‘भइया कब घर आओगे ?’’

लगा सभी बाट जोह रहे हैं ।

उसने लिखा

‘‘फूलों से लदी है चमेली’’

पूरा कमरा खुबू से भर गया जैसे ।
आज बहुत दिनों बाद

डाकिया मेरे घर आया,

और छोटी का खत लाया ।

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11/22/2008

सच



।। सच ।।



क्या करे कोई तब


जब होती है


कुछ न कर पाने की बेचैनी ?


क्या किया जा सकता है जब जुबाँ सच बोलने को आतुर हो ?


और होंठ कर दें इंकार खुलने से ?


कोई तरीका है बचने का


इस कशमकश से


जब सच स्वयं साबित न कर पाए खुद को ।


और, वो झूठ


जो लहरा रहा है परचम आसमान में


उसके पैर कभी जमीन पर थे ही नहीं ।


तमाम झूठ और अन्याय के खिलाफ


एक आवाज उठाना


क्या इस बेचैनी से ज्यादा मुश्किल है


या फिर सच का साथ देने पर


अकेले हो जाने का डर


घोल देता है खून में इतनी घबराहट ।


क्या यही अच्छा नहीं कि


उम्र भर सच छुपाने


और झूठ से डरने के बजाय


हो जाएँ सच के साथ ।


क्या यह सच का अधिकार नहीं कि उसे मिले बहुमत ।


क्या तुम नहीं चाहते कि


खून में, साँस में, आवाज में हमारी


सच हो सिर्फ सच ?


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11/21/2008

जरूरी है नीलकण्‍ठ बने रहना


।। जल ।।

यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः । उशतीरिव भातरः ।
(गंगा जल में भगवान शिव की मोक्षदायी कृपाएं बह रही हैं)

बेशक शिव की मोक्षदायिनी कृपाएं
बह रही हैं कल-कल धाराओं में ।
तुम्हीं से है, अंकुरण, जीवन, पतझर ।
तुम्हीं तो हो सृष्‍टा, सहगामी, संहारक ।
सृष्टि के आरम्भ में
तुम्हीं थे चहुंओर
जब नहीं रहेगा सबकुछ
तुम ही रहोगे हर ओर ।
दहाड़ मारता, पछाड़ खाता
विद्रोह जब होगा शान्त
देखना, उस दिन कोई नहीं होगा...........
कोई नहीं होगा जो
तुम्हारा ही चुल्लू भर अंश
तुम्हें सौंप, प्रस्तुत करे अपनी आस्था ।
आस्था बनी रहे इसलिए
जरूरी है नीलकण्ठ बने रहना ।
वरना, तुम ही रहोगे
कोई और न होगा
न तुम्हें सहलाने को...........
न तुमसे बतियाने को...........।
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11/20/2008

बाजार इजाजत नहीं देता









।। सात दिन ।।




बाजार के जीवन



मेंटारगेट की तरह आता है एक दिन ।



ताजगी के साथ शुरु होता



नए सप्ताह का सफर ।
यह सोमवार है ।



पहली बैठक में



खुलती है फाइल



बँटते हैं काम ।



‘वेल डन’ कहते हुए बास



जोड़ता है - ‘पिछले हफ्ते ठीक



काम किया । पुरुस्कार में इस



बार तुम्हारा टारगेट दोगुना ।’



‘यस सर’ कह कर वह



मुस्कुराता है ।
दिल घबरा रहा है



लेकिन यह बाजार इजाजत नहीं देता



कि वह दिल की सुने ।



उसे तो वही करना है जो



दिमाग कहता है और दिमाग उसे



रेस का घोड़ा बना रहा है ।
आज मंगलवार है ।



सही मायने में तो यही



इम्तिहान है ।



टारगेट पाने को उसे



कैश करना है रिश्‍ते ।



वह पूरा ध्यान रखता है



घर की चिन्ता घर में ही रहे



बाहर उसे ‘रिजल्ट’ लाना है ।



यही बाजार का फलसफा भी है ।
आज बुधवार है ।



अब उस पर चिन्ता हावी होने लगी है ।



एक ही लक्ष्य है और एक ही तीर



वह दौड़ रहा हैसबको पीछे छोड़ने के लिए



तेज और तेज ।
आज गुरुवार है ।



एक और मीटिंग



आज बास की त्यौरियाँ चढ़ी हुई हैं ।



फिर भी आवाज नरम है,



‘‘और मेहनत, और दौड़ो ।’’



दिन और रात में कोई भेद नहीं है ।



बुरे सपनों से नहीं



टारगेट से उसकी नींद उड़ रही है ।
वह आधी मंजिल तक भी नहीं पहुँचा और



शुक्रवार आ धमका ।



अब बास भी सब्र खो चुका है



बात में अब तारीफ नहीं



हौंसला और साहस भी नहीं



केवल तनाव है ।



‘यस सर’ कह कर उसे



आज भी मुस्कुराना है ।



दिल में घबराहट है तो क्या



यह बाजार इजाजत नहीं



देता कि वह दिल की सुने ।
आज शनिवार है ।



अब उसे कुछ भी नहीं याद ।



न बेटी के स्कूल का हाफ-डे



न बाबूजी की दवाई,



केवल बास याद है और



उनकी आवाज



''मुझे रिजल्ट चाहिए ।



और.......और......''
आज इतवार है ।



सप्ताह का आखिरी दिन ।



यही आखिरी उम्मीद भी



सुबह से निकला वह



देर रात घर पहुँचा है ।



छह दिन से रेस में दौड़



रहा घोड़ा निढाल पड़ा



है अपनी बीबी के बाजू में ।



हफ्ते भर की थकान



को बिसरा कर



सोमवार आता है ।



पहली बैठक में बास



कहता है ‘वेल डन’



तारीफ के पुल बाँध वह



इस हफ्ते का टारगेट



बढ़ा देता है ।



वह मुस्कुरा कर कहता है



‘यस सर’ ।



दिल में उसके घबराहट है लेकिन



यह बाजार उसे इजाजत



नहीं देता कि वह दिल की सुने ।
बाजार डरता है कहीं



वह एक दिन रहे बीबी के साथ



सुने बेटी की किलकारियाँ



तो भुला न दे अपना टारगेट ।
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11/19/2008

खूब बरसी है मेह



।। सन्देश ।।



भेजे थे ख्वाब तुम


तकमिले या नहीं ?


देखो, एक तो सिरहाने होगा


बिस्तर की सिलवटों में


पड़े होंगे दो-चार ।


वक्त मिले तो देखना


एक ख्वाब जेहन में


छुपा होगा कहीं ।


यादों के कुछ खत भेजे


रख कर भूल गए क्या ?


उलझी जिन्दगी में गुत्था


होंगे कुछ तो


या मिल ही जाएँ


किताबों में सूखे फूलों की तरह


सुना है, खूब बरसी है मेह


तुम्हारे आँगन में,


‘देना याद हमारी’ कह भेजा था


कजरारे मेघों को,


तुम तक पहुँचे क्या ?


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11/18/2008






।। समर ।।




मैं व्यवस्था की



अपंगता का शिकार हूँ ।



व्यवस्था, जिसमें दौड़ नहीं सकते



घिसटते जाते हैं हम ।



हर बार जब जी चाहता है उड़ना



सीमाओं को लाँघते हुए



मैं फड़फड़ा कर रह जाता हूँ



व्यवस्था के साथ लड़ाई में



जटायु की तरह ।



कलुषता जब बढ़ती है



मैं बिफर पड़ता हूँ



जैसे अनेक दुर्वासा



समा गए हों मुझमें ।



पर मैं दुर्वासा कहाँ ?



कहाँ मुझमें शाप की ताकत ?



मैं तो व्यवस्था की अपंगता का शिकार हूँ



जिसे लड़ना है



सहर होने तक ।



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कृपया मेरा ब्‍लाग 'एकोऽहम्' भी देखें ।




11/17/2008

यहां तुम्‍हें चलना है निरन्‍तर



।। यात्रा-2 ।।




बैठो चुप,


सोचो हो गया सब कुछ


अभी कहाँ हुआ सृजन ?


अभी तो रचना है एक संसार


जो होगा तुम्हारा


अभी तो तुम्हारा उद्गम है


नन्हीं नदी की तरह ।


बहा दो राह के रोड़ों को


चलो तुम भी पत्थरों में


अपनी राह बुनते हुए


करो कम करने की कोशिश


समन्दर का खार,


आत्मसात कर बुरों को


बना दो अच्छा


नन्हीं नदी की तरह ।


कहो मिल गया सब कुछ


अरे ! अभी कहाँ आराम


यहाँ तुम्हें चलना है निरन्तर


मिटाते प्यास लोगों की


नन्हीं नदी की तरह ।


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कृपया मेरा ब्‍लाग 'एकोऽहम' भी देखें ।

11/16/2008

किनारे पर बैठकर पार नहीं होगी नदी

मेरे आत्‍मीय पंकज शुक्‍ला 'परि‍मल' के काव्‍‍य संग्रह 'सपनों के आसपास' की पहली कविता मैं ने अपने ब्‍लाग 'एकोऽहम' पर पोस्‍ट की थी । वह कविता पोस्‍ट करते ही मुझे विचार आया कि अन्‍य मित्रों की रचनाएं भी इसी प्रकार प्रकाशित की जानी चाहिए । किन्‍तु इस विचार के समानान्‍तर ही दूसरा विचार दौडा-दौडा आया कि इसके लिए दूसरा ब्‍लाग ही उपयुक्‍त होगा ।
सो, 'मित्र-धन' प्रस्‍तुत है ।

पंकज के काव्य संग्रह 'सपनों के आसपास' की पहली कविता मैं ने अपने ब्‍लाग
'एकोऽहम' पर दी थी । वह पोस्ट करते ही मुझे लगा कि अपने अन्य मित्रों की रचनाएं भी इसी प्रकार दी जा सकती हैं और दी जानी चाहिए । इस विचार के समानान्‍तर ही यह विचार दौडा-दौडा चला आया कि इसके लिए दूसरा ब्लाग ही उपयुक्त होगा । सो, 'मित्र-धन' प्रस्‍‍तुत है ।

यहां आप इसी प्रकार का 'मित्र-dha।। यात्रा ।।


कोलम्बस भी ऊब गया होगा


अपनी मीलों लम्बी यात्रा में ।


तेनजिंग ने भी महसूस की होगी


हारएवरेस्ट फतह के ठीक एक पल पूर्व


बापू को भी असम्भव लगी होगी आजादी


मुक्ति के ठीक एक क्षण पहले


दुनिया में हर कहीं


जीत के ठीक एक पल पूर्व


सौ टंच प्रबल होती है हार


यह जानते हुए भी कि


किनारे पर बैठ कर


पार नहीं होगी नदी


उम्मीद और नाउम्मीद के बीच


मैं क्यूँ हथियार डाल दूँ ?


लड़े बगैर क्यूँ हार मान लूँ ?


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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता



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