।। सागर ।।
किनारे पसरी रेत पर
जमा भीड़, तुम्हारी लहरों में
ही तो तिरोहित करती है
अपने तनाव, अपने दुःख
अपना अकेलापन ।
दो दीवाने तुम्हारी लहरों
पर जिन्दगी का गीत रचते हैं ।
रोज लगता है मेला,
तुम्हारे ही सहारे कटती है
किसी की साँझ, किसी की जिन्दगी ।
मित्र, हमारी तो रोज सुनते हो
कभी अपनी नहीं कहते ।
देख रहा हूँ आजकल
मर्यादा पसन्द नहीं आ रही है ।
अपने तटबन्ध तोड़ने में
मजा आने लगा है तुम्हें ।
चाँदनी को देख ज्यादा
अधीर हो उठते हो तुम ।
ये कैसी अकुलाहट है,
कहो तो क्या परेशानी है
या तुम्हें भी जमाने की हवा लग गई है ?
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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता
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