11/26/2008

सागर



।। सागर ।।



किनारे पसरी रेत पर


जमा भीड़, तुम्हारी लहरों में


ही तो तिरोहित करती है


अपने तनाव, अपने दुःख


अपना अकेलापन ।


दो दीवाने तुम्हारी लहरों


पर जिन्दगी का गीत रचते हैं ।


रोज लगता है मेला,


तुम्हारे ही सहारे कटती है


किसी की साँझ, किसी की जिन्दगी ।


मित्र, हमारी तो रोज सुनते हो


कभी अपनी नहीं कहते ।


देख रहा हूँ आजकल


मर्यादा पसन्द नहीं आ रही है ।


अपने तटबन्ध तोड़ने में


मजा आने लगा है तुम्हें ।


चाँदनी को देख ज्यादा


अधीर हो उठते हो तुम ।


ये कैसी अकुलाहट है,


कहो तो क्या परेशानी है


या तुम्हें भी जमाने की हवा लग गई है ?
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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता


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