।। सच ।।
क्या करे कोई तब
जब होती है
कुछ न कर पाने की बेचैनी ?
क्या किया जा सकता है जब जुबाँ सच बोलने को आतुर हो ?
और होंठ कर दें इंकार खुलने से ?
कोई तरीका है बचने का
इस कशमकश से
जब सच स्वयं साबित न कर पाए खुद को ।
और, वो झूठ
जो लहरा रहा है परचम आसमान में
उसके पैर कभी जमीन पर थे ही नहीं ।
तमाम झूठ और अन्याय के खिलाफ
एक आवाज उठाना
क्या इस बेचैनी से ज्यादा मुश्किल है
या फिर सच का साथ देने पर
अकेले हो जाने का डर
घोल देता है खून में इतनी घबराहट ।
क्या यही अच्छा नहीं कि
उम्र भर सच छुपाने
और झूठ से डरने के बजाय
हो जाएँ सच के साथ ।
क्या यह सच का अधिकार नहीं कि उसे मिले बहुमत ।
क्या तुम नहीं चाहते कि
खून में, साँस में, आवाज में हमारी
सच हो सिर्फ सच ?
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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता
मैं पंकज के प्रति मोहग्रस्त हूँ, निरपेक्ष बिलकुल नहीं । आपसे करबध्द निवेदन है कि कृपया पंकज की कविताओं पर अपनी टिप्पणी अवश्य दें ।
कृपया मेरा ब्लाग ‘एकोऽहम्’ भी पढें ।
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