11/27/2008

उस एक दिन



।। उस एक दिन ।।



जैसा सुना था ठीक वैसा ही


पाया तुम्हें भोजताल ।


अतुल जलराशि


जहाँ तक देख पाता हूँ


तुम्हीं नजर आते हो


धीर-गम्भीर


अपने सृष्‍टा की तरह प्रजापालक ।


हर शाम तुममें उतरता है


थका-हारा दिनकर ।


सुबह के साथ वह फिर


निकलता है फेरी पर


हो कर तरोताजा ।


उस आग उगलते सूरज


से परेशान होकर ही अजय


आया था तुम्हारी गोद में


डुबकियाँ मारने, गोते लगाने


मगर तुमने नहीं लौटाया उसे ।


तुम्हारे आगे घण्टों बहती रहीं


दो जोड़ी आँखें,


बेबस निगाहें हर लहर पर टिकी रहीं


मगर शान्त बने रहे तुम


जैसे कुछ हुआ ही न हो ।


जीवन देने वाले भगवान से


लाश दिलवाने की प्रार्थनाएँ


की जाती रहीं


फिर भी नहीं पसीजे तुम ।


कैसे प्रजापालक हो ?


दिनकर को तो कभी नहीं रोकते


फिर उस घर के सूरज को


क्यों रोक लिया अपने भीतर ।


कहो तो ?


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(भोपाल के बड़े तालाब में डूबे किशोर अजय को याद करते हुए)


‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्‍‍ला ‘परिमल’ की एक कविता
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