।। बाजार ।।
आओ, आओ, बोली लगाओ
जितना लगाओगे, उतना पाओगे ।
कोई फरेब नहीं, झूठा दिलासा नहीं
खुला खेल फर्रूखाबादी है
पारदर्शिता की पूरी गारण्टी है ।
जितनी बड़ी होगी लालसा
उतना ही दूर जाओगे
कम खर्च में बड़ा सुख पाओ
आओ, आओ, बोली लगाओ ।
यहाँ सब बिकता है, जितना लगाओगे
गारण्टी हमारी है, उससे दोगुना पाओगे ।
जनाब, ये रिश्ते क्या हैं, इन्हें दाँव पर चलिए
सीढ़ी बना कर आगे बढ़िए ।
भावनाओं का अब काम नहीं है ।
नैतिकता, मौलिकता,
दया, प्रेम, विश्वास और न्याय,
ये क्या करते हो
आना और गिन्नी का नहीं
ये डालर का जमाना है,
कोई बड़ा दाँव चलिए
कीमती है जो, वो बात कहिए ।
बोलो अपना चेहरा बेचोगे ?
बदले में देखो कितने मुखौटे पाओगे
ये खुशी का, ये सुख का
और ये मुखौटा रुतबे का
एकदम बढ़िया, इसे लगाओ तो
कोई नहीं पहचानेगा
मुखौटे के पीछे का दर्द कोई नहीं जानेगा ।
तुम भी जब ये मुखौटा लगाओगे,
सच कहता हूँ
अपना चेहरा भूल जाओगे ।
फिर कहता हूँ, मौके की बात है
डिस्काउण्ट भी साथ है
चलिए, कुछ बड़ा दाँव चलिए
कुछ न हो तो खुद को चलिए
यह बाजार है, यहाँ सब बिकता है
अपने सपने, इच्छाएँ अपनी
उम्मीदें, साँसें अपनी
दिन, रात, हर चीज की कीमत है
जितना बेचोगे, उससे ज्यादा पाओगे
फिर एक दिन
तुम भी बाजार हो जाओगे ।
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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता
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