।। समर ।।
मैं व्यवस्था की
अपंगता का शिकार हूँ ।
व्यवस्था, जिसमें दौड़ नहीं सकते
घिसटते जाते हैं हम ।
हर बार जब जी चाहता है उड़ना
सीमाओं को लाँघते हुए
मैं फड़फड़ा कर रह जाता हूँ
व्यवस्था के साथ लड़ाई में
जटायु की तरह ।
कलुषता जब बढ़ती है
मैं बिफर पड़ता हूँ
जैसे अनेक दुर्वासा
समा गए हों मुझमें ।
पर मैं दुर्वासा कहाँ ?
कहाँ मुझमें शाप की ताकत ?
मैं तो व्यवस्था की अपंगता का शिकार हूँ
जिसे लड़ना है
सहर होने तक ।
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‘सपनों के आसपास’ शीर्षक काव्य संग्रह से पंकज शुक्ला ‘परिमल’ की एक कविता
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