1/09/2009

आपके सेवक



रात की खामोशियों में हमने ऐसा कुछ सुना,

जाल फिर से रोशनी के वास्ते तम ने बुना ।


बात सच है अब हिफाज़त हाथ में किसके रखें,

रहनुमा कोई तो डाकू या कोई है सरगना ।

कुछ करें साहिबजी घर की आबरु है लुट रही,

वो दारोगा हँस पड़ा रामू के मुँह से जब सुना ।


काटकर जेबें सभी की इक महल बनवा लिया,

आपके सेवक जो ठहरे आपने ही तो चुना ।


अब बहस होती नहीं है, रोटियों के वास्ते,

मुद्दुआ फायर हुआ है या हुई है वन्दना ।


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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1 comment:

  1. बहुत उत्तम रचना है...

    बात सच है अब हिफाज़त हाथ में किसके रखें,रहनुमा कोई तो डाकू या कोई है सरगना ।

    वाह वाह
    कुछ करें साहिबजी घर की आबरु है लुट रही,वो दारोगा हँस पड़ा रामू के मुँह से जब सुना ।

    क्या खूब कहा है...

    सुंदर रचना कर्म के लिये आप बधाई के पात्र है...

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