रात की खामोशियों में हमने ऐसा कुछ सुना,
जाल फिर से रोशनी के वास्ते तम ने बुना ।
बात सच है अब हिफाज़त हाथ में किसके रखें,
रहनुमा कोई तो डाकू या कोई है सरगना ।
कुछ करें साहिबजी घर की आबरु है लुट रही,
वो दारोगा हँस पड़ा रामू के मुँह से जब सुना ।
काटकर जेबें सभी की इक महल बनवा लिया,
आपके सेवक जो ठहरे आपने ही तो चुना ।
अब बहस होती नहीं है, रोटियों के वास्ते,
मुद्दुआ फायर हुआ है या हुई है वन्दना ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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बहुत उत्तम रचना है...
ReplyDeleteबात सच है अब हिफाज़त हाथ में किसके रखें,रहनुमा कोई तो डाकू या कोई है सरगना ।
वाह वाह
कुछ करें साहिबजी घर की आबरु है लुट रही,वो दारोगा हँस पड़ा रामू के मुँह से जब सुना ।
क्या खूब कहा है...
सुंदर रचना कर्म के लिये आप बधाई के पात्र है...