1/10/2009

साँस रामू की थमी


या तो मुझमें है कमी या फिर उसे कुछ है गुमाँ,

हाथ में ना जाने क्यों आता नहीं है आसमाँ ।


लौट बाज़ार से घर आए हैं जब से कदम,

गाँव की चौपाल पर दिखता नहीं है वो समाँ ।


घर नया, ज़ेवर नया, बीवी की खातिर कार भी,

ना मिटी माई की खाँसी, ना ही बापू का दमा ।


राजधानी से चला था एक रुपया गाँव को,

साँस रामू की थमी रुपया नहीं अब तक थमा ।


इक परिन्दा कै़द में था और अचानक उड़ गया,

तोड़कर वह बन्धनों को कह गया घर ना जमा ।

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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल


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1 comment:

  1. घर नया, ज़ेवर नया, बीवी की खातिर कार भी,

    ना मिटी माई की खाँसी, ना ही बापू का दमा ।

    बिषणु जी आप ने तो बहुत ही सच्ची सच्ची बाते लिख दी अपनी इस कविता मै, बहुत सुंदर लगा, यह सब पढ कर,
    धन्यवाद

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