या तो मुझमें है कमी या फिर उसे कुछ है गुमाँ,
हाथ में ना जाने क्यों आता नहीं है आसमाँ ।
लौट बाज़ार से घर आए हैं जब से कदम,
गाँव की चौपाल पर दिखता नहीं है वो समाँ ।
घर नया, ज़ेवर नया, बीवी की खातिर कार भी,
ना मिटी माई की खाँसी, ना ही बापू का दमा ।
राजधानी से चला था एक रुपया गाँव को,
साँस रामू की थमी रुपया नहीं अब तक थमा ।
इक परिन्दा कै़द में था और अचानक उड़ गया,
तोड़कर वह बन्धनों को कह गया घर ना जमा ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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घर नया, ज़ेवर नया, बीवी की खातिर कार भी,
ReplyDeleteना मिटी माई की खाँसी, ना ही बापू का दमा ।
बिषणु जी आप ने तो बहुत ही सच्ची सच्ची बाते लिख दी अपनी इस कविता मै, बहुत सुंदर लगा, यह सब पढ कर,
धन्यवाद