तो उसे गुपचुप
दरिया में न बहा
कह सरे राह
अभी बहुत जरूरत है उसकी
दुनिया को
नेकी जिन्दा रहेगी
जितने ज्यादा कान सुनेंगे
उसकी बाबत्
तू कहेगा
क्योंकि तेरी आवाज़ में
भरोसा होगा
नेकी
भरोसे के उपवन में ही
बगराती है वसन्त के जैसी
बदियों को बाद देने की
यही है परम्परा ।
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता
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बढिया है जी!
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