भूख जीती पेट हारा, इस सदी के अन्त में ,
बन गई है भूख नारा, इस सदी के अन्त में ।
इस गगन में झूठ के सूरज दिखाई दे रहे,
सत्य का दिखता न तारा, इस सदी के अन्त में ।
घर के पिछवाड़े पड़े मां-बाप का तो आजकल,
लाठियां ही है सहारा, इस सदी के अन्त में ।
थे जहां बुनियाद में किस्से मुहब्बत के दबे,
खो गया वो घर हमारा, इस सदी के अन्त में ।
नव सदी हमको समन्दर तक तो ले ही जाएगी,
किन्तु कब दिखता किनारा, इस सदी के अन्त में ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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भाई किस सदी के अंत की बात कर रहे हो ? यह तो सदी शुरुआत है ना ?
ReplyDeleteरचना बीसवीं सदी की रही होगी. "आ लौट के आजा मेरे मीत" नया घर बनाएँ.
ReplyDeleteभूख जीती पेट हारा, इस सदी के अन्त में ,
ReplyDeleteबन गई है भूख नारा, इस सदी के अन्त में ।
बहुत खुब कही आप ने कविता, आज सच मै ऎसा ही तो हो रहा है... क्या हम इस सदी के अन्त क्या मझधार तक भी पहुच पायेगे??
धन्यवाद