1/05/2009

खो गया वो घर हमारा



भूख जीती पेट हारा, इस सदी के अन्त में ,

बन गई है भूख नारा, इस सदी के अन्त में ।


इस गगन में झूठ के सूरज दिखाई दे रहे,

सत्य का दिखता न तारा, इस सदी के अन्त में ।


घर के पिछवाड़े पड़े मां-बाप का तो आजकल,

लाठियां ही है सहारा, इस सदी के अन्त में ।


थे जहां बुनियाद में किस्से मुहब्बत के दबे,

खो गया वो घर हमारा, इस सदी के अन्त में ।


नव सदी हमको समन्‍दर तक तो ले ही जाएगी,

किन्तु कब दिखता किनारा, इस सदी के अन्त में ।

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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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3 comments:

  1. भाई किस सदी के अंत की बात कर रहे हो ? यह तो सदी शुरुआत है ना ?

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  2. रचना बीसवीं सदी की रही होगी. "आ लौट के आजा मेरे मीत" नया घर बनाएँ.

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  3. भूख जीती पेट हारा, इस सदी के अन्त में ,
    बन गई है भूख नारा, इस सदी के अन्त में ।
    बहुत खुब कही आप ने कविता, आज सच मै ऎसा ही तो हो रहा है... क्या हम इस सदी के अन्त क्या मझधार तक भी पहुच पायेगे??
    धन्यवाद

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