
सामने ज़ज्बात दिखलाने लगा है आईना ।
कितना ही सजधज कर खड़े हो जाएं सामने,
आपकी औक़ात दिखलाने लगा है आईना ।
गले मिलते राम-औ रहमाँ एक पल को रुक गए
यूँ लगा कि जात दिखलाने लगा है आईना ।
खून के दरिया ही उसमें अब दिखाई दे रहे,
लगे है, हालात दिखलाने लगा है आईना ।
सुबह देखो उसमें या कि देखो उसमें शाम को,
हर घड़ी बस रात दिखलाने लगा है आईना ।
मुस्कुराते लोग कितने सामने उसके खड़े,
अश्कों की बारात दिखलाने लगा है आईना।
सामने आए तो ‘आशीष’ टूटकर बिखर गया,
कैसे-कैसे करामात दिखलाने लगा है आईना ।
-----
आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001
कृपया मेरे ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com भी नजर डालें।
वाह!! आभार इस प्रस्तुति का!
ReplyDeleteकाश आईना देख कर हर कोई सीख पाता तो,
ReplyDeleteज़रूर खुशियां ही खुशियां दिखाता आईना॥
बहुत बढिया आशीष जी,आभार विष्णु भैया।