
वो कर्कशी माधुर्य से
अलापती आवाज
और नहीं दिखाई देती
ईश्वरीय अभिशाप को भोगती
वो चार फुटी कद-काठी
अब तो वो चेहरे
दिखते हैं उदास
जो दिन-रात लेते थे
उसकी झि़ड़की ।
अब चाहकर भी
नहीं सुन सकते
उसकी लाचारी से भरी हूँकार
सौ गज दूर से
सुनाई देती
उसकी झिड़की
रहवासियों को देती थी सुकून
उसकी लाचारी में छिपा था
मोहल्लेवासियों का प्यार-अपनत्व
और
इसी स्नेह की बदौलत
वो पा लेता था
एक प्याली चाय
और सुलगती तम्बाकू का गहरा कश
लेकिन
स्टेशन की सड़कों को
रोशन करती वो बेनूर आवाज
सदा के लिए हो गई खामोश
अब चाहकर भी
कोई नहीं कहता
लो वो आ गया ‘अयूब’
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संजय परसाई की एक कविता
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रचना का मर्म समझ आया..बहुत खूब!!
ReplyDeleteअयूब और अयूब की आवाज़ लगाने वाली आवाजें हमारे इर्द गिर्द हमेशा से है...
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