
जब कई दिनों का
मीड़ा हुआ चूल्हा
अँगूठा दिखाता है
भाँय-भाँय करता
खाली पड़ा खेत
दगा दे जाती है
आँधियों में
छापरी की फूस
लील जाता है
इलाज का अभाव
वंश का बीज
आखिरी बूँद तक होम कर
अपने सत की
ऐसे में
इच्छा मृत्यु के सुख के जैसा
कुछ भी नहीं पास
न विदेशी मँहगी पिस्तोल
न हाइटेक शयनगृह के बीचोंबीच
मँहगी नींद की गोलियों का सेवन
न मन की मौज में दम बाहर
आखिर में
ऐसे ही गाढ़े वक्त में
हाथ बढ़ाती है
बरगद की डाल
फेंटे के पेंच
बनते हैं सीढ़ी
जिस पर चढ़कर भी
मिलता नहीं मुक्ति का द्वार
वे फिर भी
शेष रह ही जाते हैं
जो इस सबके
नाभिक है ।
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र पकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता।
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