3/13/2009

जल रहा है आदमी

खौफ़ के साये में जो पल रहा है आदमी,
कायरों की शक्ल में ही ढल रहा है आदमी ।

मुस्कुराने की उसे आदत है वो मुस्काएगा
दिल ही दिल में किस कदर जल रहा है आदमी ।

वो कतारें नामालूम ले जाती है कहाँ,
नाक की ही सीध में चल रहा है आदमी ।

जानता है सब मग़र खामोश है इस तरह,
ना ही कोई प्रश्न ना ही हल रहा है आदमी ।

वायदों के जाल में फँस उलझ कर रह गया,
आज तो हर आदमी को छल रहा है आदमी ।

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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल

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2 comments:

  1. वायदों के जाल में फँस उलझ कर रह गया,
    आज तो हर आदमी को छल रहा है आदमी ।

    -वाह आशीष जी!! उम्दा!!

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  2. खौफ़ के साये में जो पल रहा है आदमी,
    कायरों की शक्ल में ही ढल रहा है आदमी ।

    मुस्कुराने की उसे आदत है वो मुस्काएगा
    दिल ही दिल में किस कदर जल रहा है आदमी ।

    वाह वाह.....!!

    ReplyDelete

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