अकेले नहीं चल सकता
उसे चलने के लिए चाहिए जमीन
किसी वस्तु, घटना या पद की
इन्हीं के सहारे
फैलता व बढ़ता है किसी लता सा
या आकाश की
ओर मुँह किए
खड़ा रहता है
निरे ठूंठ सा।
यह केवल ''मै'' का पक्षधर है
‘हम’ को शनि की (वक्र) निगाह से
देखता है
लेकिन / शायद
उसे पता नहीं होता
कि वो कितना दूर कर देता है
उस व्यक्ति को/ व्यक्ति से
जिसके सर चढ़ कर बोल रहा है
व्यक्ति यदि चेतन हो
साथ छोड़ना भी चाहे
तो नहीं देता मौका
बस चलता रहता है
साये सा हरदम साथ
और व्यक्ति भी
न चाहते हुए
हो जाता है
अपनों से दूर......
बहुत .......दूर ===
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संजय परसाई की एक कविता
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बहुत सुन्दर रचना संजय जी की. आभार विष्णु जी, इस प्रस्तुत करने का.
ReplyDeleteअहम् का कारण ज्ञात हुआ .आपका मित्र धन सच मे अनमोल है
ReplyDeleteअत्यन्त गंभीर रचना।
ReplyDeleteinsaan aham ke saath hi jita hai,sahi,bahut achhi lagi rachana badhai.
ReplyDeleteबस चलता रहता है
ReplyDeleteसाये सा हरदम साथ
और व्यक्ति भी
न चाहते हुए
हो जाता है
अपनों से दूर......
बहुत .......दूर ===
एक जिंदा सच, जिसे हम जान कर भी अन्जान बन जाते है, बहुत ही सुंदर लिखा आप ने.
धन्यवाद