राह है रहबर नहीं है ।
पाँव में छाले पड़े हैं,
कोई भी सहचर नहीं है ।
दूर तक मैदान देखो
एक भी तरुवर नहीं है ।
गूँजती हैं सब दिशाएँ
राग पर सस्वर नहीं है ।
झूठ-सच विकृत हुए हैं,
कोई भी अन्तर नहीं है ।
ज़िन्दगी के बीहड़ों में,
एक भी ‘अंकुर’ नहीं है ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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bahut sunder
ReplyDeleteबहुत अच्छी मार्मिक कविता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
अति सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद