3/12/2009

झूठ-सच विकृत हुए

अब कहीं अवसर नहीं है,
राह है रहबर नहीं है ।

पाँव में छाले पड़े हैं,
कोई भी सहचर नहीं है ।

दूर तक मैदान देखो
एक भी तरुवर नहीं है ।

गूँजती हैं सब दिशाएँ
राग पर सस्वर नहीं है ।

झूठ-सच विकृत हुए हैं,
कोई भी अन्तर नहीं है ।

ज़िन्दगी के बीहड़ों में,
एक भी ‘अंकुर’ नहीं है ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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3 comments:

  1. बहुत अच्छी मार्मिक कविता है।
    घुघूती बासूती

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  2. अति सुंदर
    धन्यवाद

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