निकल पड़ती है वो
एक नई मंजिल की तलाश में
खड़ी हो जाती है / एक चौराहे पर
और धीरे - धीरे
शामिल हो जाती है
उस भीड़ में
जिसमें सबको तलाश है
अपनी मंजिल की।
मंजिल / जो दुरुह तो है
लेकिन क्षणिक भी
कुछ समय के बाद
मंजिल मिलती है / लेकिन
उसको यह पता नहीं होता
कि आज क्या करेगी
तगारी उठाएगी
फावड़ा चलाएगी
या किसी समारोह की
जूठी प्लेटें धोएगी
सोचता हूँ/क्या यही मंजिल है
इन काली लड़कियां की ...... ?
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संजय परसाई की एक कविता
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marmik rachana hai.badhai
ReplyDeleteअच्छी रचना है
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