3/14/2009

मंजिल

रोज सुबह
निकल पड़ती है वो
एक नई मंजिल की तलाश में
खड़ी हो जाती है / एक चौराहे पर
और धीरे - धीरे
शामिल हो जाती है
उस भीड़ में
जिसमें सबको तलाश है
अपनी मंजिल की।

मंजिल / जो दुरुह तो है
लेकिन क्षणिक भी


कुछ समय के बाद

मंजिल मिलती है / लेकिन



उसको यह पता नहीं होता

कि आज क्या करेगी



तगारी उठाएगी
फावड़ा चलाएगी
या किसी समारोह की
जूठी प्लेटें धोएगी


सोचता हूँ/क्या यही मंजिल है
इन काली लड़कियां की ...... ?
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संजय परसाई की एक कविता




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2 comments:

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