3/01/2009

सब मिलकर

सोचता हूँ डर न होता

तो क्या डरपोक भी न होता

मैं एक भीरू समय मे जी रहा


दुर्घटना का चश्मदीद होकर भी

खिसक लेता हूं मुँह पलटकर

भ्रातृ में नजर आती है घात

अर्ध्‍दांगी की भंगि में

दिखाई देता है दुश्मन


हर कदम पर

पीछा करती एक परछाई


मैं एक भीरू समय में जी रहा हूँ


अकेले चने की नियति जानकर भी

उच्च रक्तचाप की भाड़ में

उछलता रहता हूँ

कभी तो और दाने भी आएँगे

और तब सब मिलकर

फोड़ेंगे इसे.
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता



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कृपया मेरे ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com पर भी एक नजर अवश्य डालें।

4 comments:

  1. umda aur vishisht lekhan .......bahot khubsurat...


    arsh

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  2. विष्णु बैरागी जी बहुत सही लिखी कविता, काश हम सब मिल कर लडते,हर मुस्किल से तो मुस्किल होती ही नही,भीड मै एक आध को छोड कर सब भाग जाते है, लेकिन यह भुल जाते है कि आज वो तो कल तुम्हारा ना० भी आ सकता है.
    हमेशा की तरह से अति सुंदर भाव लिये.
    धन्यवाद

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  3. पत्थर उछलने की देर है, सूराख हो कर रहेगा आकाश में।

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  4. कभी तो और भी दाने आएँगे!
    जरूर आएँगे।

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