3/07/2009

हींग वाले पठान चाचा

वर्षों बाद सुनी
अफगानी आवाज
''हींग लेना, हींग''


पठान चाचा की दी हुई
हींग से ही लगता था - बघार
दाल में, तरकारी में


पंसारी की दुकान से घरों में
कभी आती नहीं थी
बघार की यह रानी


केसर के लिए विश्वसनीय
धरम-पेढ़ी
जड़ी बूटियों के लिए
अत्तार की दुकान


असली घी को भी लोग
मलकर देखते थे
हथेली की पुश्त पर लेकिन


गृहणियों के लिए
कसौटी थी
यह अफगानी मर्दाना आवाज

सेब से रक्तिम

ऊँचे - पूरे आजानुबाहु
सलवार और कुर्ते पर
जरीदार काला वास्कट
पठानी साफे पर पेंच संग तुर्रा
पैरों में अफगानी जूतियाँ


तब कितने अपने लगते थे
काबुल और कंधार
बादशाह खान और
यह हींग वाले पठान चाचा


परिवार से दूरस्थ
अपनी गृहस्थी बसाने के क्रम में
जैसे बहुत कुछ छूटा
पता नहीं छोंक से
कब विदा हुई - हींग


छूटी गठिया के दर्द की याद जो
माँ को सताया करता था
जाड़ों - भर


जेठ-वैशाख में पानी के लिए
सिर पर घड़े उठाए
माँ-बहनों का
इस चापाकल से
उस चापाकल दौड़ना


स्मृति से कब विदा हुए
बादशाह खान
कन्‍धार और काबुली खुबानिया
यह हींग वाले पठान चाचा तो
जैसे सुनी हुई कहानी
आज अचानक
हींग वाले पठान चाचा को
माँ की गृहस्थी और
पिता के पुराने मकान के पास
अपनी उसी ईमान की
बुलन्द आवाज में हेरते-देख
''हींग लेना, हींग''


याद आई
अमेरिका के युद्ध उन्माद की
तालिबान की याद आई
नृशंसताएँ और
बच्चों की जुबान पर
उन दिनों उच्चारे जाते
लादेन ...... लादेन ...... लादेन .....

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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता

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2 comments:

  1. बहुत सशक्त रचना है. पहले अक्सर दिख जात थे ये लोग. गुरुदेव टैगोर की काबुलीवाला याद हो आई.

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  2. आप की यह रचना पढ कर बहुत कुछ याद आ गया, क्या यही वो अफ़गानी लोग है जिन्हे पर लोग अपने से भी ज्यादा भारोसा करते थे,सब कुछ बदल गया है, बहुत सुन्दर ढंग से आप ने अपने मन के भाव इस कविता मै लिखे है.

    आपको और आपके परिवार को होली की रंग-बिरंगी भीगी भीगी बधाई।
    बुरा न मानो होली है। होली है जी होली है

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