मैंने देखा नही समुद्र, ठीक समुद्र की तरह, उससे
उतना ही दूर हूँ,
जितने दूर हैं मुझसे मेरे अपने
उसे कतरा-कतरा जीते हुए भीतर और बाहर
मैंने जाना है उसका सौन्दर्य
इसीलिए भाते हैं मुझे
चक्र-सूर्य मन्दिर का और
अशोक-स्तम्भ के सिंह
खजुराहो हो या एलिफेण्टा
वहां भी लंगोटी और खाल से एकमेक
विधवा की मांग से सूने, सृजनरत हाथों के शिल्प
देखे हैं मैंने । और मुग्ध हुआ हूँ ।
तुम्हें देखने की साध लिए
तिलियों को देखा है
बसेरा और बारूद बनते हुए
ये उन्हीं वृक्षों की टहनियां हैं
जिन्हें सींचा है तुमने इतनी दूर रहकर भी
अपने मेघों के हाथों
इतने वरूणालयों की गत्यात्मकता के बीच
रहकर भी, तुम्हारा जिक्र आए न आए
स्मृति और सांस में बस गई है यह साध
अपने शेष जीवन की, एकमात्र तो नहीं
उत्कट अभिलाषा - तुम्हें देखूं
ठीक समुद्र की तरह तुम्हें ।
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता
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बढ़िया प्रस्तुति!!
ReplyDeleteहोली की बहुत बधाई एवं मुबारक़बाद !!!
बहुत सुन्दर!! आपको होली की बहुत-बहुत बधाईयाँ...
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