3/22/2009

मुल्क को ही डँस रहे

देश है उनके हवाले दोस्तों,
निकाले जिनने दिवाले दोस्तों ।

इन सियासी गुफाओं में कुछ नहीं,
शेष हैं बस भ्रष्ट जाले दोस्तों ।

धवल वस्‍‍त्रों में छिपे शैतान हैं,
दुश्मनों के हम निवाले दोस्तों ।

आज अपने मुल्क को ही डँस रहे,
साँप हमने जो थे पाले दोस्तों।

हर कदम पर थीं कभी नदियाँ जहाँ,
अब दिखाई दे रहे हैं, नाले दोस्तों ।

क्या पढ़े ‘आशीष’ कोई अखबार में,
पृष्ठ दर पृष्ठ हैं घोटाले दोस्तों ।

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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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2 comments:

  1. kya aap in netaon se ummid karenge ki woh desh aur samaj ka bhala karein...nayee peedhi ko in nataon ko akar dhakiyakar nikalna hoga...

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  2. आप की कविता का एक एक शव्द सच्चा है,
    धन्यवाद

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