दौड़कर लिपट जाती है सीने से
और करने लगती है
मीठी- मीठी बातें
मान - मनुहार
और ढेर सारी शिकायतें
देरी से आने की ।
मैं भी चुपचाप
सुन लेता हूँ
क्योंकि
रोज-रोज तो आ नहीं सकता
मेरी भी अपनी मर्यादाएँ हैं
लोकलाज का ख्याल भी
कितनी मासूम है वो
कितना ख्याल रखती है अपनों का
और इन्हीं अपनों के लिए
न्यौछावर कर देती है
वो अपनी हँसी, अपनी खुशी
शायद यही सोचकर
कि उसकी थोड़ी सी हँसी
महका देगी जीवन की बगिया
और भर देगी
उसकी दीदी के जीवन में
ढेरों खुशियाँ।
-----
संजय परसाई की एक कविता
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001
कृपया मेरे ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com पर भी नजर डाले।
संजय जी की सुन्दर रचना. आभार.
ReplyDeleteसंजय परसाई जी ओर आप का धन्यवाद
ReplyDelete