3/05/2009

मासूम

जब भी देखती है वो
दौड़कर लिपट जाती है सीने से
और करने लगती है
मीठी- मीठी बातें
मान - मनुहार
और ढेर सारी शिकायतें
देरी से आने की ।


मैं भी चुपचाप
सुन लेता हूँ
क्योंकि
रोज-रोज तो आ नहीं सकता
मेरी भी अपनी मर्यादाएँ हैं
लोकलाज का ख्याल भी

कितनी मासूम है वो
कितना ख्याल रखती है अपनों का

और इन्हीं अपनों के लिए
न्यौछावर कर देती है
वो अपनी हँसी, अपनी खुशी

शायद यही सोचकर
कि उसकी थोड़ी सी हँसी
महका देगी जीवन की बगिया
और भर देगी
उसकी दीदी के जीवन में
ढेरों खुशियाँ।

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संजय परसाई की एक कविता




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2 comments:

  1. संजय जी की सुन्दर रचना. आभार.

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  2. संजय परसाई जी ओर आप का धन्यवाद

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