इस जहाँ की हर अदा बस जाफरानी बन गई ।
आदतन हमने सफर को हर समय जारी रखा,
रहगुज़र वो आज मंज़िल की निशानी बन गई ।
कल किसी के कत्ल का चर्चा रहा अखबार में,
आज तो वो बात जैसे इक कहानी बन गई ।
देखकर बेमानियाँ भी आदमी खामोश है,
ज़िस्म ठण्डा हो गया कैसी रवानी बन गई ?
आदमी को खोजने में हम जरा मसरुफ़ थे,
बस इसी दौरान ही दुनिया सयानी बन गई ।
आसमाँ के पर किसी ने काटकर बिखरा दिए,
उन परिन्दों की उड़ानें अब कहानी बन गई ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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माननीय महोदय
ReplyDeleteसादर अभिवादन
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अखिलेश शुक्ल
संपादक कथाचक्र
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आदमी को खोजने में हम जरा मसरुफ़ थे,
ReplyDeleteबस इसी दौरान ही दुनिया सयानी बन गई ।
बहुत ही सुंदर...
धन्यवाद