3/09/2009

नन्हीं बूँदों का समन्दर

आज फिर आदमी को हमने दरबदर देखा,
अपनी बस्ती में जो जलता हुआ घर देखा ।

भूख अपनी तरसती रही निवाले को
और उनकी भूख को हर रोज़ हमने तर देखा ।

सुबह में आरती हर शाम अज़ान देता है,
रात में हमने उसी हाथ में खंज़र देखा ।

ख़्वाब में ही सही इस रोज़ दिखाई तो दिया,
अपनी आँखों ने भी खुशनुमा मंज़र देखा ।

ये सियासत रही नहीं अब काबिल,
रहनुमाओं को कभी बाहर-अन्दर देखा ।

उनकी ख्वाहिशों के पर बढ़ते ही रहे
मुफलिसों पर वक्त का कहर देखा ।

साथ चलने से हर वक्त जीत मिलती है ।
नन्ही बूँदों का हमने आज समन्दर देखा ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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3 comments:

  1. bahut achhi lagi gazal,badhai

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  2. बहुत खूबसूरत और यथार्थ को प्रस्तुत करती रचना है। बधाई!

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  3. आप ने बहुत सुंदर रचना हम तक पहुचाई, आप का बहुत बहुत धन्यवाद,

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