अपनी बस्ती में जो जलता हुआ घर देखा ।
भूख अपनी तरसती रही निवाले को
और उनकी भूख को हर रोज़ हमने तर देखा ।
सुबह में आरती हर शाम अज़ान देता है,
रात में हमने उसी हाथ में खंज़र देखा ।
ख़्वाब में ही सही इस रोज़ दिखाई तो दिया,
अपनी आँखों ने भी खुशनुमा मंज़र देखा ।
ये सियासत रही नहीं अब काबिल,
रहनुमाओं को कभी बाहर-अन्दर देखा ।
उनकी ख्वाहिशों के पर बढ़ते ही रहे
मुफलिसों पर वक्त का कहर देखा ।
साथ चलने से हर वक्त जीत मिलती है ।
नन्ही बूँदों का हमने आज समन्दर देखा ।
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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल
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bahut achhi lagi gazal,badhai
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत और यथार्थ को प्रस्तुत करती रचना है। बधाई!
ReplyDeleteआप ने बहुत सुंदर रचना हम तक पहुचाई, आप का बहुत बहुत धन्यवाद,
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