2/13/2009

रंगे-उल्फत उड़ाओ


वे तो सोते हैं सिर्फ ख़्वाब में जाने के लिए,
मैं तो जगता रहा हूँ ख़्वाब सजाने के लिए ।

जो लग चुके हैं तुमपे किस तरह छुपाओगे,

आईना रखता हूँ मैं दाग़ दिखाने के लिए।

जिसमें हो जाए भस्म पाप और अनैतिकता,
ऐसी चिंगारी लाओ आग लगाने के लिए ।

खून की होलियों से खूब ही नहलाया है,
रंगे-उल्फत उड़ाओ फाग बचाने के लिए ।

दूरियॉं दूर-दूर रहने से बढ़ीं कितनी,
पास तो आओ ज़रा, पास बुलाने के लिए ।

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आशीष दशोत्तर ‘अंकुर’ की एक गजल



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4 comments:

  1. आभार इस गज़ल को प्रस्तुत करने का. बढ़िया है.

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  2. ्पास तो आओ ज़रा,पास बुलाने के लिए,आभार अच्छी रचना पढवाने के लिए।

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  3. वे तो सोते हैं सिर्फ ख़्वाब में जाने के लिए,
    मैं तो जगता रहा हूँ ख़्वाब सजाने के लिए ।
    बहुत सुंदर जनाव जबाब नही.
    धन्यवाद

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