उलझन
मन में उथल-पुथल
बस स्टॉप या रेलवे प्लेटफॉर्म पर
वहाँ पहँचते ही बढ़ जाती है धड़कनें
यात्रियों का रेला देखकर ।
हर स्टेशन पर होता है यही हाल
से चढ़ने वालों की संख्या दुगुनी
यदि डिब्बे में घुस भी गए
तो मजाल है कहीं टिक सको
सामान की सीट पर
लम्बे रुट की सवारी खर्राटे भरती
हैतो नीचे सीट की सवारी खा जाने वाली
निगाहों से घूरती है ।
और यही हम भी करते हैं
जब होते हैं सीट पर ।
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संजय परसाई की एक कविता
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क्या कहें सच तो आपने ही बता दिया अछी रचना है
ReplyDeleteहकीकत बयां करती कविता.....इस जहाँ में जिसने जगह बनाली वो दूसरे को जगह नही बनने देता .
ReplyDeleteसमय समय की बात होती है.
ReplyDeleteहम सब आजाद है, ओर आजादी हमारा परम धर्म है, चाहे आजादी का मतलब ना जाने?
ReplyDeleteधन्यवाद
सही कहा है।
ReplyDeletesafar..me agar aour magar dono shaamil hote he tabhi uljhan badti he aour ham vahi karte he jo sab karte he..yahi he safar ka arth.
ReplyDeleteaapme rachnatmkta he...achhi lagi rachna
बहुत उम्दा विचार प्रेषित किए है रचना में।
ReplyDeleteऔर यही हम भी करते हैं
ReplyDeleteजब होते हैं सीट पर ।
aur jab seat ke ye haal
to fir kursi kyon na dikhlaye kamaal