2/01/2009

सफर

अक्सर होती है
उलझन
मन में उथल-पुथल
बस स्टॉप या रेलवे प्लेटफॉर्म पर
वहाँ पहँचते ही बढ़ जाती है धड़कनें
यात्रियों का रेला देखकर ।
हर स्टेशन पर होता है यही हाल
से चढ़ने वालों की संख्या दुगुनी
यदि डिब्बे में घुस भी गए
तो मजाल है कहीं टिक सको
सामान की सीट पर
लम्बे रुट की सवारी खर्राटे भरती
हैतो नीचे सीट की सवारी खा जाने वाली
निगाहों से घूरती है ।
और यही हम भी करते हैं
जब होते हैं सीट पर ।
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संजय परसाई की एक कविता

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8 comments:

  1. क्या कहें सच तो आपने ही बता दिया अछी रचना है

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  2. हकीकत बयां करती कविता.....इस जहाँ में जिसने जगह बनाली वो दूसरे को जगह नही बनने देता .

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  3. समय समय की बात होती है.

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  4. हम सब आजाद है, ओर आजादी हमारा परम धर्म है, चाहे आजादी का मतलब ना जाने?
    धन्यवाद

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  5. safar..me agar aour magar dono shaamil hote he tabhi uljhan badti he aour ham vahi karte he jo sab karte he..yahi he safar ka arth.

    aapme rachnatmkta he...achhi lagi rachna

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  6. बहुत उम्दा विचार प्रेषित किए है रचना में।

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  7. और यही हम भी करते हैं
    जब होते हैं सीट पर ।


    aur jab seat ke ye haal
    to fir kursi kyon na dikhlaye kamaal

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