2/18/2009

क्या अब भी ऐसा ही होगा मेरा गाँव



जब-जब गुजरता हूँ उस रास्ते से
कुछ किलोमीटर पहले से ही
बरबस खोजने लगती हैं निगाहें
पे़ड़ों के झुरमुट में छुपे
मन्दिरों के कंगूरों को ।
निगाहें, बस को पीछे छोड
पहले पहुँच जाना चाहती है
उस मन्दिर/उस जमीन
उन लोगों के पास
जो/दूर होने के बाद भी
लगते हैं अपने ।
लेकिन स्मृतियाँ
हावी होती जाती हैं
निगाहों पर ।
बा‘जी व रणछोड़सिंहजी का
सुबह-सुबह मन्दिर आना
और/दोपहरी में वहीं सुस्ताना
रामू, राजू, कृष्णा और शिवा का
तगारी या टोपले में
मूँगफली लाना और टिटोड़ी से फोड़ना
मोटी बाई और भालोड़न माँ का
पुजारन माँ के साथ
नासका लेना/और
अमावस, पूनम पर
राधेश्याम की आवाज के साथ
पिताजी का गाँव भ्रमण पर जाना
रह-रहकर याद आती है
वे बातें/जो अभी भी लगती हैं ताजा
नवोबा (निर्भयसिंहजी) का ब़ड़बड़ाते हुए जाना
और उमरावसिंहजी का
रचित को गामा पहलवान कहना ।
कितना अच्छा लगता था
भेरु की दादी का रचित को रषित कहना
कहाँ होती थी उन दिनों शब्दों की परख
उनमें उलझने, उन्हें समझने की झंझट
या/रचित और रषित में अन्तर
रह-रहकर याद आता है ।
जंगल के बहाने खाल (उण्डवा नदी) किनारे
जामुन व करमदे खाना
भोमला, बनेसिंह , बलराम और
बापूसिंह के साथ
मूँगफली खाना या कंचे खेलना
और/भुवानी बा से एक डिब्बा महुआ
या जुवार के बदले कुल्फी लेना
या नीम के पेड़ नीचे
मतीरे (तरबूज) की दुकान गलती देख
महुआ का डिब्बा ले दौड़ जाना ।
कुछ भी नहीं भूला
बस, सब अभी की बात लगती है ।
तेजा दसमी के आते ही गाँव जाना/और
बगदीराम बा की ढोलक की थाप पर
सूरजमलजी से रात भर
तेजाजी की कथा सुनना
और/डोल ग्यारस पर
शंकरलालजी व महेशजी के साथ
डोल सजाना ।
तैरती जाती है स्मृतियों में स्मृतियाँ
और खोलती जाती है, अतीत की खि़ड़कियाँ ।
बद्री नट के करतब
और वाइतन माँ की चन्दू बुआ का मिलना
या/रतनसिंहजी के यहाँ
धापू के साथ खेलना और झूला झूलना ।
बरखा की आस में
पटेलबा के कुए पर उज्जयनी करना
और बोर पर झूला बाँध झूलना ।
कुछ भी नहीं भूला मैं/बस
बस से गुजरते हुए अतीत को देखता जाता हूँ
वर्तमान के आईने में
और सोचता जाता हूँ
क्या अब भी ऐसा ही होगा मेरा गाँव ?


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संजय परसाई की एक कविता

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2 comments:

  1. कविता तो बहुत अच्छी है लेकिन अगर आप अपने गाँव के लिये पूछ रहे हैं तो मुझे शक है

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  2. बहुत बढ़िया रचना. गाँव के अतीत और बर्तमान को जोड़ती अच्छी अभिव्यक्ति . धन्यवाद.

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