2/23/2009

हिलगा रह गया तो

इस ग्रह की उन्तीस प्रतिशत भूमि में

मुझे वह टुकड़ा दिखला दो

जिस पर गड़े नहीं हों तुम्हारे

आदमखोर दाँत


मुझे मंजूर है

यदि वह निर्जन है

मुझे शिकवा न होगा

जो वहां पानी-पेड़ न हो


और रहा रोटी का सवाल

मुझे पता है यह भूख मेरी है

अब तक जिन्दा हूँ

इस भूख के सहारे


नहीं चाहिए मुझे

तुम्हारा यह स्वर्ण युग

वैकुण्ठ की सम्पदा भरा जीवन

मुझे मंजूर नहीं


तुमसे टूट कर ही

बन पाऊँगा बीज

हिलगा रह गया तो

सड़ जाऊँगा ।

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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता।

यदि कोई सज्जन इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का उल्लेख अवश्य करें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरुप् प्रदान करें तो सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

कृपया मेरे ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com पर भी एक नजर अवश्य डालें।

2 comments:

  1. तुमसे टूट कर ही

    बन पाऊँगा बीज

    हिलगा रह गया तो

    सड़ जाऊँगा


    --आभार जनेश्वर जी की उम्दा रचना प्रस्तुत करने का.

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  2. और रहा रोटी का सवाल

    मुझे पता है यह भूख मेरी है

    अब तक जिन्दा हूँ

    इस भूख के सहारे
    बहुत ही सुंदर रचना.
    धन्यवाद

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