मुझे वह टुकड़ा दिखला दो
जिस पर गड़े नहीं हों तुम्हारे
आदमखोर दाँत
मुझे मंजूर है
यदि वह निर्जन है
मुझे शिकवा न होगा
जो वहां पानी-पेड़ न हो
और रहा रोटी का सवाल
मुझे पता है यह भूख मेरी है
अब तक जिन्दा हूँ
इस भूख के सहारे
नहीं चाहिए मुझे
तुम्हारा यह स्वर्ण युग
वैकुण्ठ की सम्पदा भरा जीवन
मुझे मंजूर नहीं
तुमसे टूट कर ही
बन पाऊँगा बीज
हिलगा रह गया तो
सड़ जाऊँगा ।
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता।
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तुमसे टूट कर ही
ReplyDeleteबन पाऊँगा बीज
हिलगा रह गया तो
सड़ जाऊँगा
--आभार जनेश्वर जी की उम्दा रचना प्रस्तुत करने का.
और रहा रोटी का सवाल
ReplyDeleteमुझे पता है यह भूख मेरी है
अब तक जिन्दा हूँ
इस भूख के सहारे
बहुत ही सुंदर रचना.
धन्यवाद