दुःखों को खेल समझकर, खूब खेले हैं बापूजी
सित्तर में भी घर का बोझा, खुद झेले हैं बापूजी
एक बेटा तो गया राम के, दूजा अपनी बीवी घर
अकेले में रोते-रोते खुद बोले हैं बापूजी
दूर गाँव में बीवी करती, मेहनत और मजूरी
खुद भी दिन भर पीसते, न उफ् बोले हैं बापूजी
अपनों ने भी फेरी आँखें, खोज खबर न लेते हैं
उनकी भी तारीफ करते, कितने भोले हैं बापूजी
बेटे ने उम्मीद जगाई, लेकिन व¨ भी चला गया
अब तो केवल उसका ही बस, गम पाले हैं बापूजी ।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर
बड़े बेटे के वास्ते, ऐसा बोले हैं बापूजी।
नहीं किसी का और आसरा, जीवन के इस मेले में
खुद तरकारी काटें, और रोटी बेले हैं बापूजी
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संजय परसाई की एक कविता
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अफ़सोस कड़वा है मगर कुछ हद तक़ सच भी है।
ReplyDeleteबिलकुल सच लिखा है आप ने अपनी इस कविता मै.
ReplyDeleteबहुत ही भावुक.
धन्यवाद