2/17/2009

माँ, बहुत याद आई तुम

उन दिनो
हमारे घर के
बाहर की बारादरी
होती थी
पिता की बैठकी

मकान की
दोनों बगल
और सामने
जहाँ तक जाती थी
गली
सभी परिचित थे
पिता से

प्रायः
कभी इस बगल वाले
रामू काका तो
कभी उस बगल वाले
मिसिर जी
आ विराजते
पिता के पास
बाहर बारादरी में

फिर चलते
जल-पान और
चाय-पानी के दौर

म दौड़ते रहते
बाहर से भीतर
और भीतर से बाहर

चाय और पानी को
लिए-दिए

नमस्ते कहते
तो कभी प्रणाम करते
तो पैर छूते कभी

वे घरों में
लकड़ी की चिरायन्ध
कसैले धुँए
और गोबर की गन्ध के
दिन थे

मगर तब भी
हलाकान नहीं होती थी
माँ

उन दिनों
वे कहती -
‘‘बख़त पड़े
नाते-रिश्तेदारों से पहले
काम आता है
अपना ही पास-पड़ोस‘‘

नये पोस्टमेन ने कल जब
पड़ोस के बारे में पूछा
एक नाम ....... ?

माँ ।
बहुत याद आई तुम ।
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता।

यदि कोई सज्जन इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का उल्लेख अवश्य करें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरुप् प्रदान करें तो सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर-19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

कृपया मेरे ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com पर भी एक नजर अवश्य डालें।

6 comments:

  1. बहुत ही संजीदा.. धन्यवाद यहा बाँटने के लिए..

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  2. नये पोस्टमेन ने कल जब
    पड़ोस के बारे में पूछा
    एक नाम ....... ?

    माँ ।
    बहुत याद आई तुम ।
    " बहुत भावनात्मक कविता......भावः भिवोर कर गयी.."
    Regards

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  3. बहुत खुब.. शहरी जीवन के एकाकीपन को बहुत करिने से सामने लाया...

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  4. नये पोस्टमेन ने कल जब
    पड़ोस के बारे में पूछा
    एक नाम ....... ?

    माँ ।
    बहुत याद आई तुम ।
    वाह बेरागी जी, कितनी बडी बात आप ने दो लाईनो मे कह दी.
    धन्यवाद

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  5. एक शब्द जिसमेँ सारा सँसार समाया वो है
    " माँ "
    - लावण्या

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