नागार्जुन 'बुद्धू' को देते रहे समझाईश
''बुद्धू! तू मोची बनजा, दरजी बनजा''
रघुवीर सहाय ने अपनी कविता में याद किया
फटा सुथन्ना पहने 'हरचरना'
धूमिल ने 'मोचीराम' से की लम्बी बातचीत
और 'इत्यादि
'राजेश जोशी के कलम से उतरे काग़ज़ पर
इस सर्वज्ञात को फिर से दुहराने की
नहीं है मेरी अभिलाषा
मैं देख रहा हूँ
मनुजता को दो-दो महायुद्धों में
झोंक देने वाले वे सभी अभियुक्त
वे सभी ताकतवर हिंस्त्र
जिन में जंगल खौफनाक रूप में
बाकी है अब भी
वे तक सुधर गए
आपस के परस्पर व्यवहार में
उनके बारूद अब नहीं पूछते
एक-दूसरे का नाम
छावनियों का पूरा ताना-बाना
सब बदल दिया हैं उन्होंने
और अब तो
समय-समय पर बनने वाली
मानव-श्रृंखलाओं से
कहीं अधिक मजबूत हैं
उनकी आपस में जुड़ी हथेलियाँ
जबकि फेंस के उस तरफ
मँहगू से बुद्धू नहीं बतियाता
मोचीराम और हरचरना के बीच
खड़ी है अटूट दीवार
नाम-रुपहीन इत्यादि की तो
बात ही क्या
'तुरपइ' करती लोहारिन
दमामा पीटते 'छगन बा' और
आंखों में सूनापन लिए 'अकबर खान'
वे बाहर हैं अभी
सर्वग्रासी बाज़ार की हत्यारी जद से
भय यहीं कहीं तलाशती हैं
वे ताकतवर कलुषित आत्माएँ ।
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता।
कृपया मेरे ब्लाग ‘एकोऽहम्’ http://akoham.blogspot.com पर भी एक नजर अवश्य डालें।
भय यहीं कहीं तलाशती हैं
ReplyDeleteवे ताकतवर कलुषित आत्माएँ ।
बहुत ही सुन्दर और सजीव चित्रण बैरागी जी।
दमामा पीटते 'छगन बा' और
ReplyDeleteआंखों में सूनापन लिए 'अकबर खान'
वे बाहर हैं अभी
सर्वग्रासी बाज़ार की हत्यारी जद से
भय यहीं कहीं तलाशती हैं
वे ताकतवर कलुषित आत्माएँ ।
.....बहुत खूब लिखा आपने, बधाई.
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बहुत ही सुंदर लगी आप की रचना, अति सुंदर भाव.
ReplyDeleteधन्यवाद
जनेश्वर जी कि इस कविता के लिये आभार !!
ReplyDeleteसस्नेह -- शास्त्री
बहुत ब़ढ़िया कविता पढ़वाने के लिए आभार ...
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