देह में चाहे कहीं भी रहती हो
इस वक्त जान उसकी आँखों में थी
धरती का घूमना कम्पन और धसकना
खूब अच्छे से महसूस कर रहे थे उसके पैर
भूख के दाँत पंजे नाखून सभी
सक्रिय थे उसके पेट में
वहां क्या खा रही होगी - भूख
इसे भी वह जानता था - अच्छे से
इसी बीच बाहर शोर उभरा
भागकर आते हुए परिचित बूटों की पदचाप
फोश गालियों के संग बजती लाठियाँ
खपरेल को लौह किला
बता रही थी दुनिया को
उसे खींच कर बाहर निकाला गया
इधर लीपन उखड़ी भीतों
अधर में टिकी छत
हवा भरे मार-तमाम असबाब के चिह्न
मिटाने में जुटे रहे
लायसेंसधारी हाथ
उसे खींच कर बाहर लाया गया
धक्का देकर धकेला गया
आगे की तरफ
और उसके जमीन पर गिरने से पहले
एक अदद कारतूस की दी गई उसे सलामी
सभी सावधान मुद्रा में थे
केमरे चमके धड़ाधड़
जन गण मन
नहीं था किसी भी ओंठ पर
भू-लुण्ठित भारत भाग्य विधाता
कल सुर्खियों में लिखाएगा अपना नाम
एनकाउण्टर की लिस्ट में
यह भूखण्ड
एक नये नामान्तरण में दर्ज होगा ।
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के ‘सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में’ शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता।
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2/08/2009
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कड़वी सच्चाई।बधाई।
ReplyDeleteयही हो रहा है पूरी दुनिया में.
ReplyDeleteयह सब तो आज के भारत की कहानी है जी, जिसे मै जंगल राज कहता हुं, धन्यवाद इस सुंदर कविता के लिये
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