सब कुछ बूढ़ा नहीं होता
जैसे उसकी खाँसी
जो हर गुजरते दिन के साथ
जवान होती है
जैसे उसकी एषणाएँ
अंधाती आँखों में
लावण्य की चाहत
शिथिल होती नासिकाओं में
घोंसले बनाती गन्ध
और वह सब -
जिसे जीवन में कभी
न किया न जीया
एक बूढ़ी देह में
जिसे कोई नहीं देखता
निरन्तर ऊर्जा एकत्र करता
उसका दिल
नसों के हर दिन सर्द होते खून में
न सही कोई सार्थक पहल
उसकी चेतना में बुढ़ाती नहीं अपनी छवि
अपने वजूद को भेदती
हर एक भूभंगी पर
उसकी तमाम झुर्रियां
तेंदुए की खाल सी सिमट
अपने सामर्थ्य भर
कांप उठती हैं प्रतिरोध में
एक बूढी देह
दांत और नाखून खोकर
भाषा में खोलती है अपना मोर्चा
और अवसान तक
बर्राती ही चली जाती है।
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प्रगतिशील कवि जनेश्वर के
'सतत् आदान के बिना शाश्वत प्रदाता के शिल्प में' शीर्षक से शीघ्र प्रकाश्य काव्य संग्रह की एक कविता।
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"बुडापे का बहुत ही सजीव चित्रण....."
ReplyDeleteRegards
जब एक पक्ष बुढ़ाता है तो दूसरा उस का स्थान लेता ही है। बहुत ही गंभीर रचना।
ReplyDeleteभावुक रचना, लेकिन एक सच.
ReplyDeleteधन्यवाद